।। पूजापाठ ।।
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दिगम्बर जैन आम्नाय में मंत्र व्यवस्था

सारांश द्वादशांग जिनवाणी के बारहवें दृष्टिवादांग के १४ पूर्वों में १०वाँ विद्यानुवाद पूर्व है जो तंत्र,मंत्र एवं यंत्र से सम्बद्ध है। आज भी मानव अलौकिक एवं आध्यामिक शक्तियों की आराधना में मंत्रों का प्रयोग करता है किन्तु मंत्र क्या हैं? मंत्रों का स्वरूप एवं उपयोग सा हो? क्या दिगम्बर आगम परम्परा में मंत्रों की साधना एवं धर्मप्रभावना के निमित्त उनके प्रयोग की अनुमति है? क्या पौराणिक सन्दर्भों में आचार्यों द्वारा इनके प्रयोगों का विवरण मिलता है? इन प्रश्नों के समाधान के साथ ही मंत्रों के उपयोग, विधि-निषेधों की संक्षिप्त चर्चा प्रस्तुत आलेख में की गई है।

प्राचीनकाल से मनुष्य अपने विकास हेतु भौतिक एवं आध्यात्मिक सुख की प्राप्ति के लिए तत्पर रहा है। मनुष्य अपने अभीष्ट की प्राप्ति के लिए अलौकिक शक्तियों की आराधना करता रहा है इसलिए मंत्रशास्त्र के प्रति उसी की श्रद्धा एवं आदर सदैव बना रहा किन्तु मंत्र-शास्त्रों का अध्ययन व साधन दोनों ही विशिष्ट व्यक्तियों तक सीमित रहे अतएव यह ज्यादा प्रचारित नहीं हो सके। मंत्रशास्त्र का प्रसंग आते ही एक स्वाभाविक प्रश्न उठता है कि मंत्र किसे कहते हैं? अथवा मंत्र शास्त्र की प्राचीनता क्या है? इन प्रश्नों के उत्तर में आगम के इतिहास पर दृष्टि डालनी होगी। आगम के अनुसार तीर्थंकरवाणी द्वादशांग सूत्र रूप खिरती है। उसमें दसवां विद्यानुवाद पूर्व है। जिसमें ५०० महाविद्या एवं ७०० क्षुद्रविद्याओं का वर्णन है और यह निर्विवाद सत्य है कि द्वादशांग अनादिनिधन है तब विद्यानुवाद (यंत्र-मंत्र-तंत्र) का ग्रंथ भी अनादिनिधन माना जाएगा। यह अवश्य है कि साधकों की कमी एवं मंत्र साधना विधि का पूर्ण ज्ञान नहीं होने से इसका प्रचलन अधिक नहीं हो पाया है।मंत्रविद्या के सन्दर्भ में लगभग १३वीं शताब्दी का विद्यानुशासन नामक ग्रंथ मुनि मल्लिषेण कृत ही उपलब्ध है जिसमें विलुप्त होती मंत्र विद्या के कुछ अंशों को मुनिश्री ने उक्त ग्रंथ में संकलित किया है। मंत्र का ध्वनि से घनिष्ठ सम्बंध है। ‘मंत्र विज्ञान मूलत: ध्वनि विज्ञान’ है। विद्यानुशासन ग्रंथ के अनुसार मंत्र की परिभाषा निम्न प्रकार है-

अकारादि हकारांत वर्णा मंत्र: प्रकीर्तिता:

अकार से हकार तक विशिष्ट वर्णों के समुदाय को मंत्र कहते हैं। अपने प्रभाव एवं व्यापकता के कारण शब्द अनेकार्थी रूप में प्रचलित हैं। भिन्न-भिन्न आचार्यों,विचारकों ने मंत्र की व्याख्या निम्नानुसार की है—

१. चित्त की एकाग्रता अर्थात चिन्तन की प्रक्रिया का ध्वन्यात्मक रूप ही मंत्र है।

२. देवता के सूक्ष्म शरीर का नाम मंत्र है।

३. जिस शब्द या शब्द समूह के उच्चारण से या शब्द शक्ति के द्वारा शक्तियों का अनुग्रह प्राप्त हो, उसे मंत्र कहते हैं।

४. शब्द शक्ति और आत्मा का एकीकरण करने का चिंतन मंत्र कहलाता है।

५. जो शब्द शक्ति मनुष्य को धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की प्राप्ति और कर्तव्य की प्रेरणा देती है, वह मंत्र है।

६. ज्ञान का बोध और आत्मिक शक्ति का उद्भव करने वाली विद्या मंत्र कहलाती है।

मंत्र के दो भेद हैं-१.लोकोत्तर मंत्र, २.लौकिक मंत्र। लोकोत्तर मंत्र के माध्यम से परमात्म पद (मोअ) की प्राप्ति में सहायता मिलती है जबकि लौकिक मंत्र से भौतिक सुखों की । प्रत्येक सम्प्रदाय का अपना एक मूलमंत्र होता है। मूल मंत्र के आसपास ही उस सम्प्रदाय की साधना पद्धति व सिद्धान्त आदि सुरक्षित रहते हैं। जैन आम्नाय के पास भी अपना मूलमंत्र है- णमोकार मंत्र। यह चौरासी लाख मंत्रों का जन्मदाता है| मंत्रों का मूल व मातृकाओं का आगर यह अनादि नमस्कार मंत्र है। यह चौदह पूर्वों का सार है। द्वादशांग का मूल है। बीजपद को ग्रहण करके ही गौतम गणधर ने द्वादशांग की रचना की थी। तीर्थंकर भी दीक्षा लेते समय नम: सिद्धेभ्य: उच्चारण कर ध्यानस्थ होते हैं। जितने सिद्ध हुए हैं अथवा होंगे उन सबका मूलाधार इस मंत्र का ध्यान है।

अतएव दिगम्बर जैन आम्नाय में मंत्रों का महत्वपूर्ण स्थान है। इसे मैं आगम में उल्लेखित विभिन्न दृष्टान्तों के माध्यम से स्पष्ट करना चाहूंगी— जैन आचार्यों ने, जिनमें समंतभद्र स्वामी, अकलंक स्वामी, कुमुदचन्द्र आदि का नाम प्रसिद्ध है, मंत्रशक्ति आदि के द्वारा धर्म की प्रभावना की थी और मिथ्यात्वियों के समक्ष अनेकान्त शासन की वैजयन्ती फहराई थी। जिन स्वामी समंतभद्र के प्रभाव से पाषाण पिण्ड फटा था तथा उसमें से चन्द्रप्रभु भगवान की मूर्ति की उपलब्धि हुई थी,वे आचार्य बहुत बड़े मंत्रवादी, तंत्रवादी, ज्योतिषी, वैद्य शिरोमणि, सिद्ध सारस्वत आदि थे। उन्होंने अपना परिचय इस पद्य में दिया है-

आचार्योंहं कविरहमहं वादिराट् पंडिताहम्।
दैवझोह, भिषगमहं, मांत्रिक स्तात्रिकोहम्।।
राजन्नस्यां जलधिवलयान्मेखलयामिलायाम्।
आज्ञासिद्ध: किमिति बहुना सिद्धसारस्वतोहम् ।।

वे विक्रम की दूसरी तीसरी शताब्दी में हुए हैं। धवला टीका में कहा है कि महाज्ञानी मुनि धरसेन आचार्य ने षट्खंडागम सूत्र के प्रमेय का उपदेश पुष्पदन्त तथा भूतबलि महामुनियों को दिया था। उन्होंने मुनियुगल की परीक्षा हेतु उन्हें दो दिन के उपवासपूर्वक दो विद्याएँ सिद्ध करने को दी थी। जब उनको विद्याएँ सिद्ध हुईं तो एक देवी कानी दिखी और दूसरी देवी के दाँत बाहर निकले हुए थे। दोनों विवेकी मुनियों ने मंत्र सम्बन्धी व्याकरण के अनुसार मंत्रों को सिद्ध करना प्रारम्भ किया तब सुन्दर रूप में देवता दिखाई पड़े।३ इस कथानक से धरसेनाचार्य की मंत्र विद्या निपुणता के साथ पुष्पदंत तथा भूतबलि मुनीन्द्रों की भी मंत्र-शास्त्र सम्बन्धी प्रवीणता स्पष्ट हो जाती है। अन्य धर्मों के इतिहास पर दृष्टि डालने पर ज्ञात होता है कि उनके प्रमुख आचार्यों ने विविध विद्याओं से अपने को सुसज्जित किया था। सिद्धिसम्पन्न विवेकी साधु उसका उपयोग अहिंसा धर्म की अभिवृद्धि तथा अनेकान्त शासन की महिमा को प्रकाशित करने के पवित्र कार्य में किया करते हैं। दक्षिण भारत में अनेक मंदिरों का ध्वंस, जैन धर्म के विनाश आदि का क्रूर कार्य साधुओं ने मंत्रशक्ति के बल पर किया था। जैनों के पास उसका मुकाबला करने की सामग्री नहीं रहने से उन्हें अपार क्षति उठानी पड़ी। इतिहास इसका साक्षी है।

तपोबलेन तंत्रेण मंत्रेणापि च सर्वया।
कर्तव्यं यतिना यत्नाज्जिनपूजा प्रवर्तनम् ।।

मुनि को तपोबल, तंत्र तथा मंत्र के द्वारा जिनेन्द्र भगवान की पूजा का कार्य सम्पन्न करना चाहिए। अमृतचन्द्र सूरि ने पुरुषार्थसिद्धयुपाय में सम्यग्दर्शन के अंगरूप प्रभावना पर इस प्रकार प्रकाश डाला है-

आत्मा प्रभावनीयो रत्नत्रयतेजसा सततमेव।
दान तपो जिनपूजा-विद्यातिशयैश्च जिनधर्म:।।

रत्नत्रय के तेज द्वारा अपनी आत्मा को प्रभावित करें तथा दान, तपश्चर्या, जिनपूजा तथा विद्या के चमत्कार अर्थात् मंत्र-तंत्रादि के द्वारा जैनधर्म की प्रभावना करें ताकि स्याद्वाद शासन का प्रकाश एकान्तवाद के अन्धकार को दूर करें जिससे जीवों का हित हो। जो अविवेकी अध्यात्म का यथार्थ स्वरूप न समझकर धर्मप्रभावना को आत्म-विकास का बाधक सोचता है, उसे उत्तरपुराण में गुणभद्राचार्य की यह सूक्ति ध्यान से मनन करना चाहिए-

रूचि: प्रवर्तते यस्य जैनशासन भासने।
हस्ते तस्य स्थिता मुक्तिरिति सूत्र निगद्यते।।
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