।। पांच परमेष्टि नमस्कार मंत्र ।।

सेयारूणजीयपियंगुवन्न कसिणाइ विडवित्तपाई।
अंबिल-महु-तिक्ख्ख्-कसाय-कडुय परमिट्ठिणो चंदे।।16।।

अर्हन्त आदिकों का क्रम से, वर्णध्यान इस प्रकार करना चाहिए- अर्हनत श्वेत, सिद्ध-अरूण, आचार्य पीत, प्रियंगु.....(नीलवर्ण वृक्ष) के समान उपाध्याय और वृक्षपत्रों के समान साधुओं का ध्यान करना चाहिए तथा अम्ल, मधुर, तिक्त, कषाय और कटु इस पंच रस रूपमें परमेष्ठियों की वन्दना करनी चहिए।

पुव्वाणुपुव्विहिट्ठा समया भेएणा कुरू जहाजिट्ठं।
उवरिमतुल्लं पुराओ निज्जि ुव्वक्कमो सेनो।।17।।
जिम्मय निक्खित्ते खुले साचेव हाबिज अंकविनासो।
सो होई समयअेओ वज्जेयव्वयो पयतेरणा।।18।।
इच्छियपय अंकाणां नासव्भासो य भंगपरिमाणं।
अंतकभालगलद्वं ठवियंका पुणा पुणुद्धयिां ।।19।
मूलगपंतिदुयेगां अंको जो ठकिय दुन्नि से अरंका
तेसि दुभंगे काउं निसिज्ज कमक्कमेणां1 तु।।20।।
नंदा तिहि अरिहंत भद्दा सिद्धा य सूण्णिा य सूरिणो य जया।
तिहि रित्ता उवझाया पुराण साहू सुहं किंदु।।21।।

अर्हन्तों का ध्यान नन्दा तिथि में, सिद्धों का भद्रातिथि में, आचार्यों का जयातिथि में, उपाध्यायों का रिक्ता तिथी में तािा साधुओं का पूर्णतिथि में ध्यान करना चाहिए। ये पांच परमेष्ठी मुझे सदा सुख दें। ------------------------------------------------ 1- गाथानं. 18-18-19-20 इन चारों गाथाओं का अर्थ ठीक तरह समझ में नहीं आ सका। अतः विद्वान इनका उनके आभारी रहेंगे और अगले संस्कारण में इन गधाओं र्का अाि दे देंगे--सं0

ससि-मंगल अरिहंता बुहो य सिद्धा य सुरगुरू सूरी।
सुक्केो उवझाय पुणो साहू मंदो सुहं भाणू।।22।।

सोम-मंगलवारों को अर्हन्तों का, बुधवार को सिद्धों का, बृहस्पतिवारको आचार्यों का, शुक्रवार को उपाध्यायों का अैर रविवार तथा शनिवार को साधुओं का ध्यान करने पर वे सुखप्रद होते हैं।

कत्तिय-चित्तो अरिहा वइसाहो-मग्गमास सिद्धा य।
पोसो-जिट्ठो-भद्दव-आलोआ सूरिणो सुहया।।23।।
माहासाढुज्झाया फग्गुणामासो य सावणो साहू
मह मंगलमरिहंता अचिंतचिंतामणी दिंतु।।24।।

अर्हन्तों का ध्यान कार्तिक और चैत्र में, सिद्धों का ध्यान वैशाख और मार्गशीर्ष में, आचार्यों का पौष, ज्येष्ठ, भाद्रपद अैर आश्विन में, उपाध्यायों का माघ और आषाढ़ मासों में तथा साधुओं का फाल्गुन एवं श्रावण्या मांस में ध्यान करना चाहिए। अचिन्त्यचिन्तामणि भगवान् अर्हन्त मेरा कल्याण करें।

पुंसयरा अरहंता घणिट्ठापंचगा य सिद्धा य।
दिगुरिक्खाा आयरिया णमामि सिरसा य भत्तीए।।25।।
आद्दाई जे रिक्खा अवझाया तेसि दिंतु गुणनिवहं।
चित्ता साई साहू सासयसुक्खं महं दिंतु।।26।।

अर्हन्त पुरूष नक्षत्र हैं, घनिष्ठापंचक सिद्ध हैं, आचार्य द्विगु नक्षत्र हैं, उन्हें मैं भक्तिपूर्वक सिर झुकाकर नमस्कार करता हूं। आद्र्रा आदि जो नक्षत्र हैं वे उपाध्याय हैं। वे मुझे अनेक गुणों को प्रदान करें। चित्रा और स्वाति नक्षत्र साधु स्वरूप हैं। ये मुझे शाश्वत सुख प्रदान करें।

जमु कन्ना-विस अरिहा मेसो मयरो य अंतिणो सिद्धा।
पंचाणण अलि सूरी धणु मिहुणोज्झावया वंदे।।27।।
कक्कडतुला य साहू दोहद रासी य पंचपरमिट्ठी।
भावेणां थुणमाणो पावइ सुक्खं च मुक्खं च।।28।।

कुम्भ, कन्या और वृष राशि रूप अर्हंन्त, मेष, मकर और मीन रूप सिद्ध भगवान, सिंह तथा वृश्चिक रूप आचार्य, धनु ओर मिथुन रूप उपाध्याय हैं, उन्हें नमस्कार हो। कर्क और तुला स्वरूप साधु। इस प्रकार द्वादश राशिस्वरूप पंचपरमेष्ठी मेरे द्वारा स्तुति किये गये सुख और मुक्ति के दायक हों।

तं नत्थि जं न इत्थं निमित्त्गहगणियमंततंताई।
जं पत्थियं पयच्छइ कहेइ जं पुच्छियं सयलं।।29।।

इसलिए ग्रहकणिगत और मन्त्रतन्त्रादि इसके निर्मित्त नहीं है। इस पंचपरमेष्ठी स्तवन से जो मांगा जाता है, सो देता है और जो पूछा जाता है सो कहता है।

तिहुयणासामिणिविज्जा महमन्तो मूलमंततत्ततियं।
इत्थ ठियं पि न नज्जइ गुरूवएसं विणा सम्मं।।30।।

मूल-मन्त्र और तन्त्र इस प्रकार तीन रूप महान् त्रिभुवनस्वामिनी विद्या यहां स्थित होते हुए भी गुरूउपदेश बिना प्राप्त नहीं की जा सकती।

सुमरियमिचं पिइ मं तत्तं नासेइ सयलदुरियाइं।
पारम्परेण नायं तं नत्थि सुहं न जंक ुणाइ।।31।।

यह पंचपरमेष्ठी स्तोत्र स्मरण मात्र से सम्पूर्ण पापों का नाश कर देता है और संसार में ऐसा कोई सुख नहीं है जिसे परम्परा से प्राप्त न किया जा सके।

पंचनवकारतत्तं लेसेणां संसिअं अणुहवेणाम्।
सिरिमाणतुंगमाहिंदमुज्जवलं सिवसुहं दिंतु।।32।।

पंच नमस्कार मन्त्र का तत्व श्रीमानतुंगाचार्य ने अपने अनुभव के आधार पर संक्षेप में कहा है। यह मन्त्र मुझे विशुद्ध मोक्ष-सुख दे।

संभरह पढह झायह णिच्चं घोसेह णात्रह अरहाई
भद्दपयं जइ इच्छह तस्सेव य अत्तणो णाणां।।33।।

जो इस नवपदी णमोकार मंत्र का स्मरण करता है, पढ़ता है, नित्य ध्यान करता है और उच्चारण करता है वह अपना कल्याण करता है और आत्मज्ञान प्राप्त कर लेता है।

न हि उवसग्गा पीडा कूरग्गहदंसणां भओ संका।
जह वि न हवंति एए तो वि तिसंझं भणिज्जाुस।।34।।

इस नवपदी नमस्कार मन्त्र के पाठ से न तो उपसर्ग किसी प्रकार की पीड़ा देते हैं, न क्रूर ग्रहों का दर्शन होता है और न संसार-परिभ्रमण की बहुशंका रहती है। यद्यपि एक बार नमस्कारमन्त्र के जाप से ये बाधाएं नहीं होतीं, तथापि इसका त्रिकाल पाठ करना चाहिए।

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