।। नियमसार कलश 76 पर प्रवचन ।।
jain temple134

नियमसार कलश 76 पर प्रवचन

जिनधर्म जयवंत वर्तता है

कैसा है जिनधर्म-वीतरागधर्म?

त्रसघात के परिणामरूप अंधकार के नाश का जो हेतु है।

त्रसघासत के परिणामरूप जो अशुभभाव है, वह अज्ञान-अंधकार है, क्योंकि उसमें ज्ञानस्वभाव का अभाव है। ऐसे जो त्रसघात के परिणाम हैं/ऐसा जो अज्ञानरूपी ध्वांत, अर्थात् अंधकार है, उसके नाश का हेतु जिनधर्म है। तात्पर्य यह है कि जिनधर्म, अशुभपरिणाम के नाश का कारण है। यहां अशुभपरिणाम में भी त्रसघात के परिणाम लिए हैं क्योंकि यह अहिंसाव्रत का अधिकार है न!

सकल लोक के जीवसमूह को जो सुखप्रद है।

जैनधर्म, संपूर्ण दुनिा के/जगत के/लोक के जीवसमूह को; अर्थात् समस्त जीवों को सुखप्रद है; सुख और शांति देने वाला है। लो, वीतरागभाव, सुख और शांति को देने वाला है - ऐसा कहते हैं और उसे ही जिनधर्म कहते हैं।

स्थावर एकेन्द्रिय जीवों के विविध वध से जो बहुत दूर है

पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति -ऐसे जो स्थावर एकेन्द्रिय जीव हैं, उनके विविध वध से; अर्थात् अनेक प्रकार के हनन से जैनधर्म बहुत दूर है। जैनधर्म, अर्थात् वीतरागभाव, एकेन्द्रिय जीवों के बध के परिणामें से अति दूर है। देखो, यहां कहा है कि बध के परिणामों से जिनधर्म अति, अर्थात् बहुत दूर है। तात्पर्य यह है कि त्रस-स्थावर जीवों के बध के परिणाम, अशुभ हैं, उनसे शुभभाव दूर है और शुभभाव से शुद्धभाव दूर है; इसलिए अशुभभाव तो जिनधर्म है ही नहीं, परंतु शुभभाव भी जिनधर्म नहीं है।

और सुंदर सुखसागर का जो पूर है

अपना त्रिकालीनस्वभाव जिनस्वरूप है, उसके आश्रय के प्रगट हुआ वीतरागभाव, जो कि जिनधर्म है, वह सुंदर सुखसागर का पूर है। देखो, परिणाम में परम आनन्द का प्रवाह बहना, वह जिनधर्म है - ऐसा कहते हैं। अहा! धर्म, सुंदर सुखसागर का पूर है। जिनधर्म; अर्थात्, वर्तमान निर्मलपरिणति की बात है। दूसरे प्रकार से कहें तो त्रिकाली जीव तो सुखसागर का पूर है - ऐसा कहते हैं कि जिनमें शांति और सुख बहता है, जो शांति और सुख का परिणमन है, वह जिनधर्म है, परंतु शुभाशुभराग का परिणमन, वह जिनधर्म नहीं है।

समयसार की 15वीं गाथा में शुद्धपर्याय को जैनशासन कहा है न! क्योंकि जिनधर्म पर्याय में है न! जिसने अंदर में अबद्धस्पृष्ट आत्मा को जाना है, उसे पर्याय में वीतरागता और आनन्द बहता है और उसे ही जैनशासन-जिनधर्म कहते हैं। लो, यह जिनधर्म की व्याख्या! त्रस-स्थावर को नहीं मारना, उनकी दया पालना, वह जिनधर्म - ऐसी व्याख्या नहीं है, क्योंकि एकेन्द्रिय को मारने के अशुभपरिणाम से तो जैनधर्म बहुत दूर है और उन्हें नहीं मारने के शुभ परिणाम से भी दूर है। अहा! व्रत के परिणाम से भी जिनधर्म दूर है - ऐसा कहते हैं। लो, यह जिनधर्म!

‘मूलमारग सांभलो जिन नो रे....’ - ऐसा श्रीमद् राजचंद्र में आता है न ! तो यह शुद्धता ही जिनमार्ग है। जिस परिणाम के द्वारा जिनस्वरूपी भगवान आत्मा का अवलम्बन लिया, वह परिणाम वीतरागी है और वह जिनधर्म है। तात्पर्य यह है कि जिनधर्म, धर्मी के परिणाम में होता है। भाई! बात बहुत सुक्ष्म है! धर्मी जीव ने/साधक ने धर्मी, ऐसे त्रिकाली आत्मा के आश्रय से जो परिणाम प्रगट किए, वे परिणाम जिनधर्म है; अर्थात् शांतरसरूप परिणमन करना - अकषायभावरूप होना, वह जिनधर्म है, ऐसा यहां कहते हैं, क्योंकि यहां प्रगटरूप जिनधम की बात है परंतु त्रिकाली (शक्तिरूप) जिनधर्म की बात नहीं है।

प्रश्न - यह तो एकांत हो जाता है?

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उत्तर- भाई् यह सम्यक् एकांत ही है।

स जयति जिनधर्मः, अर्थात्, वह जिनधर्म जयवंत वर्तता है।

देखो, जैनधर्म नहीं, किंतु जिनधर्म कहा है और वह ‘जयति’, अर्थात् जयवंत वर्तता है - ऐसा कहकर मुनिराज अपने परिणाम की बात करते हैं कि उस जिनधर्म का भाव हमारे परिणाम में जयवंत वर्तता है। वह जिनधर्म कहीं अन्यत्र रहता है - ऐसा नहीं है परंतु जो सर्व जीव समूह को सुखदाता है, त्रस-स्थावर के बध के परिणामों से अतिदूर है और सुख सागर का पूर है, वह जिनधर्म हमारे परिणाम में जयवंत वर्तता है - ऐसा मुनिराज कहते है।

पूर्ण जिनस्वरूप भगवान आत्मा का अवलम्बन करके/आश्रय करके /उसके समुख होकर जो परिणाम हुए, वह परिणाम हमें वर्तमान में वर्तते हैं और इसीलिए हमारे परिणाम में जिनधर्म जयवंत वर्तता है। त्रस और स्थावर जीवों के बंध के परिणाम से अति दूर - ऐसे हमारे परिणाम वीतरागभावरूप वर्तते हैं; इस कारण जैनशासन हमारे पास है, जिनधर्म हमारे परिणाम में वर्तता है - ऐसा मुनिराज कहते हैं। तदुपरांत वे यह भी कहते हैं कि उसका हमें पात है; इसीलिए तो कहते हैं न कि जिनधर्म जयवंत वर्तता है। भाई! धर्म ऐसा अद्भुत है।

अहा! भगवान ने कहा और मैंने मात्र सुना कि जिनधर्म ऐसा होता है - यह नहीं कहा, परंतु यहां तो यह कहते हैं कि हमारे परिणाम में जिनधर्म, वर्तमान में वर्तता है और इसीलिए वह जयवंत है, जीवित-जीवंत है। अहा! मुनिराज को धर्म का जोश चढ़ गया है। वे कहते हैं कि हमें त्रिकाली वीतरागी स्वभाव में से प्रावहरूप जो वीतरागीपरिणति उत्पन्न हुई है, वह जिनधर्म है। लो, ऐसा जिनधर्म है और ऐसे-ऐसे अनन्त परिणामों का पिण्ड जो जिनस्वरूप है, वह जीव का स्वरूप है। दूसरे प्रकार से कहें तो जिनधर्म जिस परिणाम में वर्तता है, वैसे-वैसे अनन्त परिणाम आत्मा में है - ऐसा वीतरागस्वरूप आत्मा है, उसके आश्रम से वीतरागधर्म प्रगट हुआ है और वर्तता है, ऐसा कहते हैं।

देखो, मुझे जिनधर्म है या नहीं - इसका स्वयं को पता चलता है। तात्पर्य यह है कि धर्म एक वीतरागपर्याय है और वह वीतरागपर्याय स्वयं को वर्तती है - ऐसा अपने को पता पड़ता है - यह कहते हैं। ‘यह प्रीतिभोज’ - जैसे विवाह के पश्चात् उत्साह से भोजन करना प्रीतिभोज कहलाता है; इसी प्रकार यह जिनधर्म भी आत्मा के आनन्द का प्रीतिभोज है - ऐसा कहते हैं। देखो, यह वास्तविक जिनधर्म की व्याख्या!

प्रश्न - जिन धर्म कहां रहता है, मदिर में या पुस्तक में?

उत्तर - जिन धर्म जहां से प्रगट होता है, वहां रहता है। त्रिकाली भगवान आत्मा, पूर्ण ज्ञान, पूर्ण आनन्द, पूर्ण वीतरागता, पूर्ण शांत-शांत-शांत रसस्वरूप है; वहां से प्रगट होने वाला शांतरसमय अकषाय भाव जिनधर्म आत्मा में रहता है और जयवंत वर्तता है। ऐसा कहकर, धन्य रे मुनि धन्य! कि जिन्हे जिनधर्म जयवंत वर्तता है और उन्होंने जीवन जीना जाना है - ऐसा कहते हैं। अपने स्तवन में भी आता है न कि ‘जीवि जान्यों नेमनाथे जीवन’ - इसी प्रकार यहां कहते हैं कि ‘जीवि जान्यो मुनिए जीवन जिन धर्म ना परिणाम थी’ - जिनधर्म ऐसा अद्भुत है।

अहा! जिनधर्म कोई सम्प्रदाय अथवा बाड़ा नहीं है, अपितु वह तो वस्तु का स्वरूप है। जिनवीतरागस्वरूप परमात्मस्वरूप आत्मा के आश्रय से वीतरागता प्रगट होती है, वह जिनधर्म है और वह तो वस्तु की स्थित है; इसलिए जिनधर्म कोई पक्ष अथवा बाड़ा नहीं है। यहां मुनिराज ने कहा कि मेरी पर्याय में जिनधर्म जयवंत वर्तता है; वह कहीं अन्यत्र वर्तता है, ऐसा नहीं है। मेरा भगवान आत्मा प्रसन्न होकर मेरी पर्याय में आया है। मेरा भगवान आत्मा कृपा करके वीतरागरूप होकर परिणाम में आया है; इसलिए वह जयवंत वर्तता है; अर्थात्, मुझे अनुभव में आता है। मैं प्रत्यक्ष आनन्द और वीतरागभाव के वेदन में हूं और वह जिनधर्म है - ऐसा मुनिराज कहते हैं।

ऐसा वीतरागधर्म है तो फिर यह सब मंदिर बनाना इत्यादि किसलिए?

भाई! यह सब तो उस काल में होना हो तो उसके कारण होता है। हां, उस काल में जीव को शुभभाव हो तो उसे निमित्त कहा जाता है, तथापि वह शुभराग, धर्म नहीं है और फिर भी वह आता है। यह बात अद्भुत है! गजब है!

अहो! त्रिलोकनाथ सर्वज्ञ परमात्मा के समीप में गणधर और संत निज अंतर के परिणाम में वर्तते हैं। ऐसे उस नित्यानन्दी के अनुभवी को यहां जिनधर्मी कहते हैं और उस (जिन अंतर) परिणाम को जैनधर्म कहते हैं कि किंतु छह काय की -एकेन्द्रिय और त्रस की दया पालन करना, वह जैनधर्म है - ऐसा नहीं है क्योंकि उस परिणाम से जिनधर्म दूर है। छह काय के घात के परिणाम से और उनकी दया के परिणाम से भी जैनधर्म दूर है। लो, ऐसा ही उसका सजह स्वभाव है, और जो ऐसा स्वीकार करता है, उसने जिनधर्म सुना - ऐसा कहते हैं, वरना उसने जिनधर्म सुना नहीं है।