|| उत्तम क्षमावाणी ||

पाप अपराध कर लेने के पश्चात् मनुष्य को जब अपनी त्रुटि ज्ञात हो जावे। वह अपनी गलता को समझ लेवे तब उसका कर्तव्य है कि वह उसका अनुताप (पश्चाताप) करे, कि ‘मैंने यह कार्य अच्छा नहीं किया, मुझे ऐसा न करना चाहिये था, भविष्य में मैं ऐसा न करूँगा।‘‘ ऐसा अनुपात करने से मनुष्य के हृदय की कालिमा बहुत कुछ घुल जाती है। यदि उसके बाद भी मन में अपने अपराध के लिये ग्लानि रहे तो उसका कुछ प्रायश्चित भी किसी गुरुजन से या स्वयं अपने हृदय से लेना चाहिये। अथवा जिस व्यक्ति को अपने अपराध से हानि पहुँची हो, उससे अपने अपराध की क्षमा मांग लेवे। इतना कर लेने पर मन की ग्लानि दूर हो जाती है, आत्मा का पाप भार हल्का हो जाता है।

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पाप करके अनुपात (पश्चाताप) न करे, अपने अपराध को ठीक समझे, अपनी गलती को पुष्टि करे, समर्थन करे, अपनी त्रुटि स्वीकार ही न करे, तो वह अपराध-पाप आत्मा पर जम जाता है, पाप और भार अधिक भारी हो जाता है जो कि भविष्य को अंधकारमय बना देता है।

अपने अपराध को, गलती या त्रुटि को स्वीकार करना मनुष्य के उच्च आचार विचार का सूचक है और अपनी गलती न मानना पतन का चिन्ह है।

एक दिन राजा ने अपने राज्य के कारागार (जेल) का निरीक्षण किया। उसको वहाँ बड़ा काम करने के लिये जाते हुए तीन कैदी मिले। राजा ने उनसे पूछा कि तुम लोग किस अपराध मे दंड पा रहे हो ?

एक कैदी बोला, मैं अन्य अपराध के बदले में पुलिस के द्वारा पकड़ा गया था और मजिस्ट्रेट ने असल अपराधी के बजाय मुझे जेल भेज दिया है।

दूसरे ने कहा कि पुलिस और न्यायधीश (जज) के साथ मेरी शत्रुता थी इस कारण झूठा दोष लगा कर मुझे फँसा दिया और यहाँ भेज दिया।

तीसरे बंदी ने उत्तर दिया कि मैंने सचमुच अपराध (कुसूर) किया था, न्यायाधीश ने जो मुझे दंड दिया है, वह ठीक है, मुझे उसके विरुद्ध कुछ नहीं कहना।

राजा ने तीनों से पूछा अब तुम क्या चाहते हो ? तब पहला तथा दूसरा कैदी बोला कि हम निरपराध हैं हमको छोड़ दिया जावे। तीसरे ने कहा कि मैं अपराधी हूँ मैं क्षमा किस मुख से मांगूं।

राजा तीसरे कैदी की सत्य बात सुनकर प्रसन्न हुआ और उसने उस तीसरे कैदी को बंदीघर से मुक्त कर दिया, पहले दूसरे को जेल में ही रहने दिया।

अतः अज्ञान तथा कषाय वश कोई गलती या अपराध हो जावे तो उसका अनुपात (पश्चाताप) करना चाहिये तथा अपना दोष स्वीकार करके क्षमा मांग लेनी चाहिये जिससे अपना मन शुद्ध हो जावे। इसके सिवाय ‘गलती करना‘ अस्पज्ञ तथा कषाय सहित मनुष्य का स्वभाव है।‘ ऐसा समझ कर अन्य जीवों के अपराध क्षमा करते रहना चाहिये।

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