।। जिनालय ।।

तीन केवल ज्ञानधारी 1. गौतम स्वामी 2. सुधर्म स्वामी 3. जम्बूस्व

1. गौतम स्वामी - ;अन्तिम केवलीद्ध केवली काल-12 वर्ष

2. लोहार्य ;सुधर्म स्वामीद्ध - ;अन्तिम केवलीद्ध केवली काल12 वर्ष

3. जम्बू स्वामी - ;अन्तिम केवलीद्ध

5. श्रुतकेवली ;100 वर्षद्ध पांच श्रुतकेवली आचार्य केवलज्ञान के स्थान पर पूर्ण श्रुतज्ञान ही प्राप्त कर सकें।

1. विष्णु नन्दि ; 14 वर्षद्ध 3. अपराजित ;22 वर्षद्ध 5. भद्रवाहु स्वामी ; 29 वर्षद्ध 2. नन्दिमित्र ; 16 वर्षद्ध 4. गोवर्धनाचार्य ; 19 वर्षद्ध

11. पूर्वधारी आचार्य ; 183 वर्षद्धइस काल में 11 आचार्य हुये जो ग्यारह अंग और दसपूर्वधारी आगमवेत्ता थे और आगम शास्त्रों के अधिकांश भाग के ज्ञाता रहें।

1. विशाखाचार्य;10 वर्षद्ध 5. नागसेनाचार्य;18 वर्षद्ध 9. बृद्धिलिंगाचार्य ;20 वर्षद्ध 2. प्रोष्ठिलाचार्य;19 वर्षद्ध 6. सिद्धर्थाचार्य ;17 वर्षद्ध 10. देवाचार्य ;14 वर्षद्ध 3. क्षत्रियाचार्य ;17 वर्षद्ध 7. घृतिसेनाचार्य;18 वर्षद्ध 11. धर्मसेनाचार्य ;16 वर्षद्ध 4. जयसेनाचार्य;21 वर्षद्ध 8. विजयाचार्य ;13 वर्षद्ध

5. एकादशांगधारी ;62 वर्षद्ध इस अवधि में पांच आचार्य केवल ग्यारह अंगों के ज्ञाता ही रहें।

1. नक्षत्राचार्य ;18 वर्षद्ध 3. पाण्डवाचार्य ;39 वर्षद्ध 5. कंसाचार्य ;32 वर्षद्ध 2. जयपालाचार्य ;20 वर्षद्ध 4. ध्रुवसेनाचार्य ;14 वर्षद्ध

4. आचारांगधारी ;97 वर्षद्ध

1. सुभद्रचार्य ;6 वर्षद्ध 3. भ्रदबाहुद्वितीय ;23 वर्षद्ध 2. यशोभद्राचार्य ;18 वर्षद्ध 4. लोहाचार्य ;50 वर्षद्ध

अंतिम श्रुतकेवली आचार्य भद्रबाहु के पुनीत चरण,अतिशय क्षेत्र श्रवणबेलगोला।

4. आरातीय यतियाॅं 1. विनयधर 2. श्री दत्त 3. शिवदत्त 4. अर्हद्दत्त

5. एक अंगधारी 1. अर्हब्दलि;28 वर्षद्ध 3. धरसेनाचार्य;19 वर्षद्ध 5. भूतवली ;20 वर्षद्ध 2. माघनन्दि;21 वर्षद्ध 4. पुष्पदंत जी;30 वर्षद्ध

गिरनार में गुरू धरसेनाचार्य से पुष्पदंत, भूतवली आचार्य विद्याभ्यास कर रहे हैं।

दिगम्बर-आरातीय-आचार्य- परम्परा को पांच भागों में विभक्त किया गया है।

1. श्रुतधराचार्य 2. सारस्वताचार्य 3. प्रबुद्धाचार्य 4. परंपराकोषाकाचार्य 5. आचार्यतुल्य कवि लेखक

1. श्रुतधराचार्य

श्रुतधराचार्य से अभिप्राय उन आचार्यों से है जिन्हांेने सिद्धांत-साहित्य-कर्मसाहित्य-अध्यात्मसाहित्य का ग्रंथन दिगम्बर आचार्यों के चारित्र और गुणों का निर्वाह करते हुए किया है। श्रुत की ये परम्परा अर्थश्रुत और द्रव्यश्रुत के रूप में ईशापूर्व की शताब्दियों से आरम्भ होकर चतुर्थ पंचम शताब्दी तक चलती रही है।

2. सारस्वताचार्य

सारस्वताचार्यों से अभिप्राय उन आचार्यों से है जिन्होंने से प्राप्त हुई श्रुत परम्परा का मौलिक ग्रन्थप्रणयन और टीका-साहित्य द्वारा प्रचार और प्रसार किया है। इन आचार्यों में मौलिक प्रतिमा तो रही है पर श्रुतधरों के समान अंग और पूर्व साहित्य का ज्ञान नहीं रहा है।

3. प्रबुद्धाचार्य

प्रबुद्धाचार्य से हमारा अभिप्राय ऐसे आचार्यों से है जिन्होंने अपनी प्रतिभा द्वारा ग्रन्थप्रणयन के साथ विवृतियाॅं और भाष्य रचे है। इन आचार्यों ने पदयात्रा द्वारा भारत का भ्रमण किया और प्राकृत, अपभ्रंश एवं संस्कृत भाषाओं में ग्रन्थ की।

3
2
1