।। जैन सम्प्रदाय ।।

दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों ही सम्प्रदायों के उपलब्ध साहित्य के आधार से यह पता चलात है कि विक्रम की दूसरी शताब्दी में विशाल जैन संघ स्पष्ट रूप से दो भागों में विभाजित हो गया और इस विभाग का मूल कारण साधुओं का वस्त्र परिधान था। जो पक्ष साधुओं की नग्नता का पक्षपाती था अैरउसे ही माहवीर का मूल आचार मानता था वह दिगम्बर कहलाया। इसको मूलसंघ नाम से भी कहा है और जो पक्ष वस्त्रपात्र का समर्थन करता था वह श्वेताम्बर कहलाया। दिगम्बर शब्द का अर्थ है-दिशा ही जिनका वस्त्र है, अर्थात नग्न। और श्वेताम्बर शब्द का अर्थ है-सफेद वस्त्र वाला। इस तरह प्रारम्भ में यद्यपि साधुओं के वस्त्र परिधान को लेकर ही संघभेद हुआ किंतु बाद को उसमें भेद की अन्य भी सामग्री जुटती गयी ओर धीरे-धीरे दोनों सम्प्रदायों में भी अनेक अवान्तर पंथ हो गये। किंतु भेद के कारणोंपर दृष्टिपात करने से पता चलता है कि जैन धर्म के विभिन्न सम्प्रदायों में तात्विक दृष्टि से भेद नहीं है, बल्कि जो कुछ भेद है वह अधिकांश में व्यावहारिक दृष्टि से ही है। सभी जैन सम्प्रदाय और पंथ अहिंसा और अनेकांतवाद के अनुयायी हैं, आत्मा, परमात्मा, मोक्ष, संसार आदि के स्वरूप के विषय में उनमें कोई भेद नहीं है। सातों तत्वों का स्वरूप सभी एक-सा मानते हैं, कुछ परिवाभाओं वगैरह को छोड़कर कर्म सिद्धांत में भी कोई मार्मिक भेद नहीं हैं फिर भी भेद जो है वह ऐसा है जो मिटाया नहीं जा सकता। किंतु उस भेद के कारण जो दिलों में भेद की दीवार खड़ी हो चुकी है, वह अवश्य गिरायी जा सकती है। अस्तु, प्रत्येक सम्प्रदाय और उसके अवांतर पंथों का परिचय निम्न प्रकार है-

दिगम्बर सम्प्रदाय

दिगम्बर सम्प्रदाय के साधु नग्न हरते हैं। वे जीव जंतु को दूर करने के लिए मोरपंख की पीछी रखते हैं और मल-मूख वगैरह की बाधा के लिए एक कमण्डलु रखते हैं, जिसमें प्रासुक जल रहता है। दिन में एक बार खड़े होकर अपने हाथ में ही भोजन कर लेते हैं इसलिए उन्हें भोजन के लिए पात्र की आवश्यकता नहीं होती। दिगम्बर साधु का यह स्वरूप प्रारंभ से प्रायः ऐसा ही चला आता है, उसमें कुछ अंतर नहीं पड़ा है। किंतु आचार ग्रन्थों में जो कहा है कि मुनियों को बस्ती से बाहर उद्यानों या शून्य गृहों मेंरहना चाहिए, इसमें अवश्यय शिथिलता आयी। मुनियों ने वनों को छोड़कर धीरे-2 नगरों में रहना प्रारम्भ कर दिया। तभी तो ईसा की नौवीं शती के जैनाचार्य गुणभद्र ने मुनियों की इस प्रवृत्ति पर खेद प्रकट करते हुए लिखा है कि ‘जैसे रात्रि में इधर-उधर से भयभीत मृग ग्राम के समीप में आ बसते हैं वैसे ही इस कलिकाल में तपस्वीजन भी वनों को छोड़कर ग्राम में आ बसते हैं यह बड़ी सुखद बात हैं

धीरे-2 यह शिथिलाचार बढ़ता रहा और परिस्थितियों तथा मनुष्य की स्वाभाविक दुर्बलताओं से उसे बराबर प्रोत्साहन मिला। तभी तो शिवकोटि आचार्य के नाम से प्रसिद्ध की गयी रत्नमाला2 में कालिकाल में मुनियों को वनवास छोड़कर जिन

1. इतस्ततश्च त्रस्यंतो विभावर्या तथा मृगाः।
वनाद्विशन्त्युपग्रामं कलौ कष्टं तपस्विनः ।। 297।ं - आत्मानु.
2. कलौ काले वने वासो वज्र्यते मुनिसतमैः।
स्थीयते चजिनागारे ग्रामादिषु विशेषतः।। 29।।

मंदिरों में रहने का स्पष्ट विधान किया गया है। इसे ही चैत्यवास कहते हैं। इसी से श्वेताम्बरों में चैत्यवासी सम्प्रदाय की उत्पत्ति हुई थी। किंतु दिगम्बर सम्प्रदाय में इस नाम के सम्प्रदाय का तो कोई उल्लेख नहीं मिलता फिर भी यह निश्चित है कि दिगम्बर सम्प्रदाय में भी वह था और उसी का विकसित एक रूप भट्टारकपद है जिसके विरोध में तेरह पंथ का उदय हुआ।

दिगम्बर सम्प्रदाय

पिछले साहित्य में दिगम्बर धर्म के लिए ‘मूलसंघ’ शब्द का व्यवहार बहुतायत से पाया जाता है। दिगम्बरधर्म या मूल संघ में आगे चलकर अनेक भेद-प्रभेद हो गये। आचार्य इन्द्रनन्दि ने अपने श्रुतावतार में लिखा है कि पुण्ड्रवर्धनपुर में अर्हद्बलि नाम के आचार्य हो गये हैं वे पांच वर्ष के अंत में सौ योजन में बसने वाले मुनियों को एकत्र करके युग प्रतिक्रमण किया करते थें एक बार युग के अंत में इसी प्रकार युग प्रतिक्रमण के लिए आये हुए मुनियों से उन्होंने पूछा कि क्या सब मुनि आ गये? तब उन्होंने उत्तर दिया-‘हां’ भगवान्। हम सब अपने-अपने संघ सहित आ गये।’ यह सुनकर आचार्य ने विचार किया कि अब यह जैन धर्म गण पक्षपात के सहारे ठहर सकेगा, उदाीन भाव से नहीं। तब उन्होंने संघ या गण स्थापित किये। जो मुनि गुहाओं से आये थे उनमें से कुछ को ‘नन्दि’ और कुछ को ‘वीर’ नाम दिया। जो अशोक वाटिका से आये थे उनमें से कुछ को ‘अपराजित’ और कुछ को ‘देव’ नाम दिय, जो मुनि पंचस्तूप्य निवास से आये थे उनमें से कुछ को ‘सेन’ और कुछ को ‘भद्र’ नाम दिया, जो मुनि शल्मलि महावृक्ष के मूल से आये थे, उनमें से कुछ को ‘गुणधर’ और कुछ को ‘गुप्त’ नाम दिया, जो खण्डकेसर वृक्षों के मूल से आये थे, उनमें से कुछ को ‘सिंह’ और कुछ को -चन्द्र’ नाम दिया।

इन नामों के विषय में कुछ मतभेद भी हैं, जिसका उल्लेख भी आचार्य इन्द्रनन्दि ने दिया हैं कुछ के मत से जो गुहाओं से आये थे, उन्हें ‘नन्दि’ जो अशोकवान से आये थे उन्हें ‘देव’ जो पंचस्तूपों से आये थे उन्हें ‘सेन’ जो शाल्मति वृक्ष के मूल से आये थे उन्हें ‘वीर’ और जो खण्डकेसर वृक्षों के मूल से आये थे उन्हें ‘भद्र’ नाम दिय गया । कुछ क ेमत से गुहावासी ‘नन्’िअशोक वन से आने वाले ‘देव’ पंचस्तूपवासी ‘सेन’ शाल्मलि वृक्ष वाले ‘वीर’ और खण्डकेसर वाले ‘भद्र’ और ‘सिंह’ कहलाये।

1. आचार्य इन्द्रनन्दि ने इस विषय में ‘अक्तं च’ करके एक श्लोक उद्धृत किया है जो इस प्रकार है-

‘आयातौ नन्दिवीरौ प्रकटगिरिगुहावासतोऽशोकवाटाद्-
देवश्चान्योऽपराजित इति यतिपेा सेनभद्रान्ह्यौ च।’
पंचस्तुष्यात्सगुप्तौ गुणधरवृषभः शल्मलीवृक्षमूला-
त्रिर्यातौ सिंहचन्द्रौ प्रथितगुणगणौ केसरात्खण्डपूर्वात्।।96।।

इन मतभेदों से मालूम होता है कि आचार्य इन्द्रनन्दि को भी इस नामभेद का स्पष्ट ज्ञान नहीं था, इसलिए इस बात का भी पता नहीं चलता कि अमुक को अमुल संज्ञा ही क्यों दी गयी ।इन सब संज्ञाओं से नन्दि, सेन, देव और सिंह नाम ही विशेष परिचित है। भट्टारक1 इन्द्रनन्दि आदि ने अर्हद्बलि आचार्य के द्वारा इन्हीं चार संघों की स्थापना किये जाने का उल्लेख किया है।

इन चार संघों के भी आगे अनेक भेद-प्रभेद हो गये। साधारणतः संघों के भेदों को गण और प्रभेदों या उपभेदों को गच्छ कहने की परम्परा मिलती हैं कहीं-कहीं संघों को गण भी कहा है, जैसे नन्दिगण, सेनगण आदि। कहीं कहीं संघों को अन्वय भी कहा है, जैसे ‘सेनान्वय’। गणों में बलात्कारगण, देशीयगण और काणूरगण इन तीन गणों के और गच्छों में पुस्तकगच्छ, सरस्वतीगच्छ, वक्रगच्छ और तगरिलगच्द के उल्लेख् पाये जाते हैं। इन संघ, गण और गच्छों की प्रव्रज्या आदि क्रियाओं में कोई भेद नहीं हैं।

किंतु दर्शनसार में कुछ ऐसे भी संघों की उत्पत्ति का उल्लेख किया है जिन्हें उसमें जैनाभास बतलाया गया हैं वे संघ हैं-श्वेताम्बर, यापनीय, द्रविण, माथुर ओर काष्ठा। इनमें से पहेल दो संघों का वर्णन आगे किया गया है, क्योंकि उनसे आचार के अतिरिक्त दिगम्बरों का सिद्धांत भेद भी है। शेष तीन जैन संघ दिगम्बर धर्म के ही अवान्तर संघ हैं तथा उनके साथ कोई महत्व का सिद्धांतभेद भी नहीं है। दर्शनासार2 के अनुसार वि. सं. 526 में दक्षिण मथुरा में द्राविड़ संघ की उत्पत्ति हुई। इसका संस्थापक आचार्य पूज्यपाद का शिष्य वज्रनन्दि था। इसकी मान्यता है कि बीज में जीव नहीं रहता, कोई वस्तु प्रासुक नहीं है। इसने ठण्डे पानी से स्नान करके और खेती वाणिज्य से जीवन निर्वाह करके प्रचुर पाप का संचय किया।