।। गृहस्थ के अष्ट मूलगुण ।।

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एक सियार ने एक बार सागरसेन मुनिराज के पास रात्रिभोजन का त्याग कर दिया। एक दिन सियार बहुत प्यासा था अतः वह पानी पीने के लिए लिए एक बावड़ी में उतरा। वहां अंधेरा दिखने से रात्रि समझकर ऊपर आ गया। ऊपर प्रकाश देखकर फिर नीचे गया। नीचे बार-बार अंधेरा देखने से और रात्रि में पानी का त्याग होने सेपानी नहीं पिया अतः मर गया। इस व्रत के प्रभाव से वह सियार मनुष्य गति में प्रीतिकर कुमार हो गया। उसी भव में मुनि दीक्षा लेकर वह कर्मों से छूटकर मुक्त हो गया।

जब एक पशु भी रात्रिभोजन त्याग करके अगले भव में परमात्म अवस्था प्राप्त कर सकता है तो आप तो मनुष्य हैं आपको तो जीवन में प्रत्येक कार्य विवेकपूर्वक करना चाहिए।

पांच उदुम्बर फलों के एवं 3 मकार के त्याग के विषया में तो मैंने पहले बता ही दिया है। इसके साथ ही पंचपरमेष्ठियों की नित्य ही स्तुति वंदना करनी चाहिए एवं प्रत्येक प्राणी पर दया भाव रखना चाहिए क्योंकि अपने समान ही हर जीव का दुखदर्द समझने से आपसी प्रेमभाव बढ़ता है।

मृगसेन नामक एक धीवर ने मुनिराज से नियम लिया कि आज मेरे जान में जो मछली पहले आवेगी, उसे नहीं मारूंगा। नियम के अनुसार उसे अपने जाल में आई हुई मछली के गलें में काला धागा बांधकर पांच बार उसे छोड़ा अतः उसके प्रभाव से अगले भव में धनकीर्ति सेठ की पर्याय में पां बार उसके प्राणों की रक्षा हुई। जीव दया से बढ़कर संसार में दूसरा कोई धर्म नहीं है और जीव हिंसा से बढ़कर दूसरा कोई पाप नहीं है।

आठवां मूलगुण बताया है जलगालन अर्थात् पानी को हमेशा छानकर पीना चाहिए क्योंकि जैन सिद्धांत के अनुसार पानी की एक बूंद में असंख्यात जीव होते हैं अतः बिना छना पानी पीने से उन जीवों का घात होता है और स्वस्थ्य भी बिगडता है। वैज्ञानिक लोगों ने भी बिना छने पानी की एक बूंद में 36450 जीव बताये हैं, इसलिए पानी को फिल्टर करके तथा उबालकर पीने के लिए डाॅक्टर लोग बताते हैं। पानी छानने की भी अपने आप में एक विधि होती है जिसका यथावत् पालन करने से अहिंसाधर्म का भलीभांति पालन होता है। मोटे कपड़े का दोहरा छन्ना होना चाहिए। ऐसी मर्यादापूर्वक छना हुआ जल अड़तालीस मिनट तक जीव रहित रहता है उसके बाद पुनः उसमें त्रसजीव उत्पन्न हो जाते हैं अतः उसे फिर से छानना चािहए। छने हुए पानी में लौंग, इलाइची आदि डाल देने से पानी प्रासुक हो जाता है तब उसकी मर्यादा छह घण्टे की हो जाती है। गमर किये हुए जल की मर्यादा चैबीस घंटे की होती है।

आपको यदि अपने मूलगुणों को यथावत् पालन करना है तो सर्वप्रथम दुर्जनों की संगति का त्याग करना चाहिए ताकि शराब, मांस आदि बुरी चीजें खाने की आदत न पड़ने पाये। दूसरी बात अपने जेब में हर समय एक रूमाल या छन्ना रखें और उससे छानकर पानी पियें।

रत्नकरण्डश्रावकाचार में आचार्य समंतभद्र स्वमी ने विशेषरूप में अष्टमूलगुण बताये हैं-

मद्यमांसमधुत्यागैः सहाणुव्रतपंचकम्।
अष्टौ मूलगुणानाहुर्गृहिणां श्रमणोत्तमा।।
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अर्थात हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील इन चारों का एकदेश त्याग और परिग्रह का प्रमाण ये पांच अणुव्रतों का पालन तथा मद्य, मांस, इन तीन मकारों के त्याग रकने को साधुओं ने अष्टमूलगुण कहा है। इसमें अलग से पांच उदुम्बर फलों का त्याग नहीं बताया है क्योंकि अहिंसाणुव्रत में ही वह अन्तर्भूत हो जाते है। इसी प्रकार से रात्रिभोजन त्याग को भी अहिंसा में ही शामिल कर दिया हैं

पांच अणुव्रतों का पालन करने से एक सिंह जैसा क्रूर प्राणी भी तिर गया और वह दसवें भव में तीर्थंकर भगवान महावीर बन गया। जिसने भी अणुव्रतों को धारण किया, उसने सदैव उन्नति की ओर कमद बढ़ाया। यह अकाव्य नियम देखा गया है कि अणुव्रत लेने वाला व्यक्ति कभी गरीब नहीं होता बल्कि दिन दूरी रात चैगुनी उसकी सम्पत्ति बढत्रती ही जाती है।

अणुव्रत में सेठ पूनमचंद घासीलाल का उदाहरण वर्तमान में प्रसिद्ध है। चारित्रचक्रवर्ती आचार्य श्री शांतिसागर जी महाराज से उन्होंने पांच अणुव्रत ग्रहण किए, परिग्रह प्रमाण में उस समय की परिस्थिति के अनुसार वे दस हजार रूपये का प्रमाण करने लगे किन्तु आचार्यश्री ने एक लाख की सीमा कर दी। गुरू का आर्शीवाद और व्रत का माहात्म्य उसी वर्ष उन्होंने जवाहरात के व्यापार में लाखों रूपया कमा लिया,जिसकी उन्हें कभी उम्मीद भी नहीं थी।

एक दिन सेठ जी महाराज के पास आए और बोले- महाराज! मेरा परिग्रह सीमा उल्लंघन कर रहा है, गुरूदेव! अब मैं उस पैसे का क्या करूं? तभी एक साधु ने कहा- सेठ जी! संघ को सम्मेदशिखर की यात्रा करा दो। तभी आचार्य श्री का संघ उत्तर प्रान्त में आया और संघपति पूनमचंद घासीलाल ने साधुसंघ को सिद्धक्षेत्र की यात्रा कराकर अपने द्रव्य का सुदपयोग कर लिया तथा उनका नाम भी सदा के लिए अमर हो गया।

इसके पश्चात् उनके घर में संपत्ति इतनी बढ़ती चली गई कि मानों लक्ष्मी ने बसेरा ही कर लिया हो। तब उन्होंने बम्बई में कालाबा देवी रोड़ पर एक बड़ा विशाल जिनमंदिर बनाया जिसकी तुलना भारत के किसी भी जैन मंदिर से कर पान अशक्य है। यह घटना अधिक नहीं, लगभग 50 वर्ष पुरानी है।

आज भी कितने ही लोग देखे जाते हैं कि अणुव्रत लेने के बाद उनकी सम्पत्ति बढ़ती ही जाती है किनतु बात तो भावों की है कि वे सेठ जी लक्ष्मी बढ़ने पर गुरू के पास गये थे और लक्ष्मी का सदुपयोग कर लिया था और आज के लाला लोक क्या करते हैं कि धन बढ़ा तो अपने खाते में परिग्रह पूरा किया तथा उसके बाद पन्ती, बेटा, बेटी, बहू, नाती, पोते न जाने कितनों के नाम से उसे अपने सिर का बोझ बनाये रहते हैं और व्यर्थ ही अपने व्रत मंे अतिचार (दोष) लगाया करते हैं। इसलिए अपने जीवन को पापभीरू बनाने हेु अभक्ष्य भक्षण से बचें और अष्टमूलगुणों को धारण करें क्योंकि पंच अणुव्रतों को धारण करने वाला व्यक्ति देवगति को ही प्राप्त करता है, यह अकात्य नियम है।

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