।। धर्मभावना ।।
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हे आत्मन! यदि तू जन्म-मरण से भयभीत है तो धर्म कर, धर्म रसायन का पान कर; जिससे तू अजर-अमर हो सके।

पर ध्यान रखना, धर्म पढने मात्र से नहीं होता पुस्तक और पिच्छी रखने से धर्म नहीं होता तथा किसी मठ मेंरहने से या केशलोंचन कर लेने मात्र से भीधर्म नहीं होता। जो व्यक्ति राग-द्वेष को छोड़कर निज आत्मा में वास करता है, उसे ही जिनेन्द्र भगवान ने धर्म कहा है अैर वह धर्म ही पंचमगति को प्राप्त कराता है।’’

उक्त सम्पूर्णकथन का एकमात्र तात्पर्य यह है कि निज भगवान आत्मा की आराधना ही वास्तवकि धर्म है; क्योंकि निज भगवान आत्मा की आराधना का नाम ही सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारि है। पर और पर्याय से भिन्न निज आत्मा का अवलोकन ही सम्यग्दर्शन है, उसका परिज्ञान ही सम्यग्ज्ञान एवं उसमें ही लीनता-रमणता सम्यक्चारित्र है। इसे ही आत्मोपासना भी कहते हैं।

इसी दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप आत्मोपासना की प्रेरणा देते हुए आचार्य अमृतचन्द्र लिखते हैं। -

’’एष ज्ञानधनो नित्यमामा सिद्धिमभीप्सुभिः।
साध्यसाधक भावेन द्विधैकः समुपास्यताम्।।2

चाहे साध्यभाव से करे, चाहे साधकभाव से; पर मोक्षार्थियों को ज्ञान के घनपिण्ड भगवान आत्मा की ही उपासना करना चाहिए; क्योंकि उपासना के योग्य एक निज भगवान आत्मा ही है।’’ उक्त आत्मदर्शन-ज्ञान-ध्यानरूप आत्मोपासना ही साक्षात् मोक्ष का मार्ग है; अतः यही परमधर्म है। इस परमधर्म की प्रािप्त के लिए बार-बार किया गया चिन्तन-मनन ही धर्मभावना हे।

यहां एक प्रश्न संभव है कि जब ’बोधि’ और ’धर्म’ दोनों श्ज्ञब्दों का अर्थ रत्नत्रयरूप धर्म ही होता है; तब फिर बोधिदुर्लभ और धर्म - ऐसी दो भावनायें पृथकृ-पृ1थक् क्यों रखी गयीं? - दोनों की विषयवस्तु में मूलभूत अन्तर क्या है?

यद्यपि यह सत्य है कि सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप रत्नत्रय को ही बोधि कहते हैं तथा वास्तविक धर्म भी यह रत्नत्रय ही है - इसप्रकार बोधि और धर्म एकार्थवाची ही हैं; तथापित बोधिदुर्लभभावना में बोधि की दुर्लभता अर्थात् रत्नत्रय की दुर्लभता का चिनतन किया जाता है और धर्मभावना में धर्म अर्थात् रत्नत्रय के स्वरूप एवं महिमा का चिन्तन किया जाता है।

बोधिदुर्लभभवना में बोधि की दुर्लभता के साथ-साथ उन संयोगों की दुर्लभता का चिंतन भी किय जाता है, जिन संयोगों के बिना बोधि की प्राप्ति संभव नहीं है अथवा जिन संयोगों में बोधि की प्राप्ति की संभावना रहती है। निराश् का वातावरण तोड़ने के लिए बोधि की सुलभता का स्वरूप भी स्पष्ट किया जाता है।

बोधिदुर्लीाभावना में रत्नत्रयरूप धर्म की दुर्लभता ओर सुलभता का स्व्यप स्पष्ट किया जाता है और धर्मभावना में रत्नत्रयरूप धर्म का स्वरूप व महिमा बताई जाती है। बोधिदुर्लभभावना में धर्म की दुर्लभता बताकर उसे प्राप्त कर लेने की सशक्त प्रेरणा दी जाती है और धर्मभावना में धर्म का स्वरूप स्पष्ट कर उसे धारण करने का मार्ग प्रशस्त किय जाता हैं

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प्रश्न: यदि ऐसी बात है ता फिर दोनों के नाम एकार्थवाची क्यों रखे गये?

उत्तर: दोनों के नाम एकार्थवाची कहां हैं? एकार्थवाची तो बोधि ओर धर्म शब्द हैं; पर भावनाओं के नाम बोधिभावना व धर्मभावना नहीं, बोधिदुर्लभभावना और धर्मभावना है। बोधदुर्लभ शब्द का अर्थ धर्म नहीं, धर्म की दुर्लभता है।

प्रश्न: यदि ऐसा है तो फिर ऐसा ही क्यां नहीं कहा? यदि ऐसा कहते तो कोई भ्रम भी उत्पन्न नहीं होता ओरदोनों का भाव भी स्पष्ट हो जाता।

उत्तर: समझनेवाले को तो भाव अभी भी स्पष्ट ही है, नहीं समझनेवलों को तब भी स्पष्ट नहीं होता; फिर और भी अनेक प्रश्न खड़े हो जाते। यह संक्षिप्तप्रिय जगत धर्मदुर्लभ को भी धर्म शब्द से ही अभिहित करता - ऐसी स्थिति में धर्म और धर्मदुर्लभभावना का भेद करना भी संभव न रहता।

बोधिदुर्लीाभावना को भी अनेक स्थानों पर संक्षिप्तप्रियता और छन्दानुरोध से ’बोधि’ शब्द से युगों से अभिहित किया जाता रहा है।

आचार्य कुन्दकुन्द ने भी इसप्रकार के प्रयोग किये हैं। इस सन्दर्भ में निम्नांकित गाथा द्रष्टव्य है -

’’एवंज ायदि णाणं हेयमुवादेय णिच्छये णत्थि।
चिंतेज्जइ मुणि बोहिं संसारविरमणट्इे य।।1

इसप्रकार अशुद्धनिश्चयनय से बोधि में हेयोपादेय व्यवस्था बनती है, पर शुद्धनिश्चयनय से बोधि में हेयोपादेयरूप विकल्प ही नहीं रहते हैं। संसार से विरक्ति के लएि मुनिजनों को इस बोधिभावना का चिन्तन करना चाहिए।’’

उक्त कथन में बोधिदुर्लभभावना के अर्थ मं मात्र ’बोधि’ शब्द का ही प्रयोग किया गया है। यही कारण है कि ’धर्म’ और ’बोधि’ श्ब्द एकार्थवाची होने परभी इस ग्यारहवीं भावना का नाम धर्मदुर्लभभाभावना न रखकर बोधिदुर्लभभावना रखा गया है, जो कि सर्वथा उपयुक्त है।

उत्तमक्षमादिरूप अथवा सम्यग्दर्शनादिरूप अहिंसक वीतराग-परिणति ही निज भगवान आत्मा की सच्ची आराधना है, मुक्तिरूपी साध्य को सिद्ध करनेवाली सम्यक् साधना है, अनन्त अतीन्द्रिय आनन्द की जननी एवं संसार के पार उतारनेवाली भव्यभावना है। यह अहिंसक वीतराग-परिणति ही वास्तविक धर्म है, इसके ही प्रकटरूप उत्तमक्षमादि दशधर्म हैं।

जिस आत्मस्वभाव के आश्रय से उक्त अहिंसक वीतराग-परिणति उत्पन्न होती है; ’वत्थु सहावो धम्मो - वस्तु का स्वभाव ही धर्म है’ - इस कथन के अनुसार वह आत्मस्वभाव भी धर्म है और उस आत्मस्वभाव के आश्रय से उत्पन्न् होनेवलाी सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चाििरत्ररूप वीतराग-परिणति भी धर्म है। इसी वीतराग-परिणति का नाम ही भगवती अहिंसाहै, जिसे परमधर्म कहा जाता है।

जैसा कि कसायपाहुड़ के निम्नांकित कथान से स्पष्ट है -

’’रागादीणमणुप्पा अहिंसगगत्तं त्ति देसिदं समये।
तेसिं चे उत्पत्ती हिंसेत्ति जिोहि णिद्दिट्ठा।।1

आचार्य अमृतचन्द्र ने पुरूषार्थसिद्धयुपाय में भी इसीप्रकार का भाव व्यक्त किया है।2

इसप्रकार हम देखते है क सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारिहत्ररूप रत्नत्रय धर्म, उत्तमक्षमादि दशलक्षण धर्म; निज भगवान आत्मा की उपासना, आराधना, भावना एवं साधना तथ भगवती अहिंसा - ये सभी एकमात्र वीतराग-परिणतिरूप धर्म के ही रूपानतर हैं, नामान्तर हैं; अतः इन सबकी भावना ही र्धभावना है। इन सबका वैराग्गयोत्पाददक आत्मोन्मुखी चिन्तन ही धर्मभावना का मूल भय है।

वीतराग-परिणतिरूप् शुद्ध परिणामें में सभी धर्म समाहित हो जाते हैं। जैसा कि परमात्मप्रकाश की टीका में कहा गया है -

’’सांसारे पतन्तं प्राणिनमुद्धृत्य नरेन्द्रनागेन्द्रदेवेन्द्रवन्द्ये मोक्षपदे धरतीति धर्म इति धर्मशबदेनात्र निश्चयेन जीवस्य शुद्धपरिणाम एव ग्राह्यः। तस्य तु मध्ये वीतरागसर्वज्ञप्रणीतनयविभागेन सर्वें धर्मा अन्तर्भूता लभ्यनते। तथ अहिंसालक्षणों धर्मः सेाऽपि जीवशुद्धभावं बिना न संभवति। सागारानगारलक्षणें धर्मः सोऽपि तथैव। उत्तमक्षमादि दशविधो धर्मः सोऽपि जीवशुद्धभावमपेक्षते। ’सद्द!ष्टिज्ञानवृत्तानि धर्मं धर्मेश्वरा विदुः’ इत्युक्तं यद् धर्मलक्षणं तदपि तथैव। रागद्वेशमोहरहितः परिणाामें धर्मः सोऽपि जीवशुद्धस्वभाव एव। वस्तुस्वभावो धर्मः सोऽपि तथैव।1

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