।। दाता के 21 विशेष गुण ।।

13 वात्सल्य से परिपूर्ण हृदय-उत्तम दाता वह है, जिसके रोम-रोम में धर्म एवं धर्मात्मा के प्रति वात्सल्य, निर्मल, निःस्वार्थ प्रेम भरा हो, जहां भी वह यथार्थ धर्मात्मा को देखें,उसके हृदय से वात्सल्य का झरना फूट पड़े। उसका हृदय संकीर्ण नहीं अपितु सम्पूर्ण यथार्थ धर्म को ग्रहण करने का इच्छुक हो। गाय का बछडत्रे के प्रति जो निःस्वार्थ स्नेह होता है उसी प्रकार का स्नेह साधर्मियों एवं साधकों के प्रति हो।

14 सद्धर्मप्रभावनेच्छुक-उत्तम दाता सदेव सत्य धर्म की प्रभावना का इच्छुक रहता है, जिनधर्म की प्रभावना होते देखा वह अंतरंग में बहुत ही आनन्दित होता है। सद्धर्म प्रभावना करने में तत्परता उत्तम दाता का अनुपम गुण है। वह येन केन प्रकारेण समीचीन साधनों के माध्यम से (दान, ज्ञान, पूजा, विधन, जूलूस, महोत्सव तीर्थंकरों के कल्याण-को मानकर) धर्म प्रभावना ही करता है।

15 स्वपर कल्याणार्थी-उत्तम दाता सदैव स्व पर कल्याण में तत्पर रहता है, उसका मुख्य ध्येय लोक-ख्याति, पूजा प्रतिष्ठ या मान-सम्मान की प्राप्ति नहीं अपितु यथार्थ कल्याण की प्राप्ति है। इसलिए वह दान ‘छपाकर’ देने में नहीं ‘छिपाकर’ देने में विश्वास रखता है। अधिक धर्म के कार्यों को करके भी उसे घमण्ड नहीं आता। वह विनम्र ही रहता है। क्योंकि वह जानता है कि आत्म कल्याण मान के माध्यम से नहीं अपितु समीचीन दान, ज्ञान, ध्यान, के माध्यम से ही होगा।

16 सद्बोध धरक-उत्तम दाता वही होता है जो विवेकी हो, समीचीन ज्ञान का धारक हो, क्योंकि समीचीन ज्ञान के अीााव में की गई क्रिया पूर्ण रूपेण समीचीन फल को देने में असमर्थ होती है, समीचीन बोध ही सत्य से साक्षात्कार कराने में कारण है, समीचीन बोध के बिना धर्म के स्वरूप को समझ पाना भी कठिन है एवं समीचीन बोध के अभाव में वह सत्य मार्ग से भटक जाएगा, अतः उत्तम दाता को सद्बोधी होना अनिवार्य है।

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17 संयम सन्मुखी-उत्तम वह है, जो देश संयम आदि से युक्त है अथवा संयम ग्रहण करने से सन्मुख है, संयम ग्रहण करने के प्रति लालायित है। संयम के सन्मुख दाता ही संयमी व संयम का यथार्थ रूप जानकर आंतरिक भक्ति प्रकट कर सकता है। संयम का विरोधी, प्रतिमुखी उत्तम दाता नहीं हो सकता।

18 संतोषी - उत्तम दाता वह है जो संतोषी धारण करने में समर्थ है, यदि असंतोषी होगा तो दान नहीं दे सकेगा सदैव ग्रहण करने के लिए आतुर रहेगा एवं उसकी प्रवृत्ति (कंजूसों जैसी) कृपणवत् हो जाएगीं कृपण धर्म नहीं कर सकते दान नहीं दे सकते। कृपण अधिकांशतः निर्धनता को ही प्राप्त हो जाते हैं। जो श्रावक अल्प धन होने पर भी दान देता है वह उत्तम दाता है क्योंकि इच्छानुसार धन कब, किसके पास हुआ है? अतः उत्तम दाता जो कुछ है उसे संतोष धारण करते हुए सत्पात्रों को दान देने में एवं सत् कार्यों के दान देने में अग्रसर रहने की भावना से युक्त् होता है।

19 उदार हृदय - उत्तम दाता वह है जो ‘‘वसुधैव कुटुम्बकम्’’ की भावना से युक्त् हो, उसका हृदय उदार हो, उदार हृदय वाला प्राणी ही धर्म की परिपूर्णता को प्राप्त कर सकते हैं। उदार हृदय वाला प्राणी दानदेकर अपना अहोभयग् मानता है जबकि संकीर्ण हृदय वाला प्राणी या तो दान देता ही नहीं, कदाचित् दे भी दे तो पश्चाताप करता है, उदार हृदय वाला सद्-धर्म के लिए सदैव समर्पित रहता है, संकीर्ण हृदय वाला समर्पित नहीं होता है। वह वस्तु की सम्पूर्णता नहीं अंश को ही पूर्ण मान कर बैठ जाता है।

20 सहनशील एवं सरल हृदय - उत्तम दाता समस्त प्रतिकूलताओं को भी आसानी से सहन कर लेता है। अनुकूलता में तो प्रायः सभी सहनशील रहते ही है किंतु उत्तम दाता वस्तु तत्व का यथार्थ विचार करते हुए प्रतिकूलताओं को भी क्षणिक (धूप-छाया जैसे खेल) मानकर सहन कर लेता है। उसका हृदय निर्मल जल या दर्पण के समान स्वच्छ होता है, निर्मल हृदय में ही धर्म का बीज अंकुरित हो सकता है जिसका हृदय स्वच्छ नहीं है, वह स्वच्छता को नहीं पा सकता है। सहनशील व्यक्ति ही उन्नति के शिखर को प्राप्त कर सकते हैं, जिनका हृदय बालक वत् सरल होता है उनके हृदय में ही धर्ध एवं परमात्मा का वास सम्भव है, कठोर हृदय वालेों में नहीं।

21 दयालु - अहिंसा सम्पूर्ण धर्मों का बीज है, आधर है, चेतना है, बिना अहिंसा के धर्म मुर्दे के समान है। अहिंसा, करूणा, दया, अनुकंपा, रहम आदि शब्द कथ्यंचित् एकार्थवाची हैं। जो दाता दया से रहित है। वह सर्वस्व त्यागी भी हो जाये। फिर भी धर्मात्मा नहीं हो सकता। समीचीन दाता वही हो सकता है जिसके हृदय में दया परिपूर्णता भरी हो, वह दूसरों को दुःखी देकर द्रवीभूत हो जाए, जिसका हृदय नवनीत के समान मृदु हो अर्थात दयालुता भी उत्तम दाता का अभिन्न गुण है इसके बिना धर्म ढोंग ही कहलाएगा।

दाता की विशेष योग्यताएं - दाता को शुद्धियों का ध्यान रखना, दूषण, अतिचार व उत्पादन आदि दोषों से रहित होना चाहिए। अष्ट मूलगुण का धारक, सच्चे देव शास्त्र गुरू व जिन धर्मोंपासक, सप्त व्यसनादि से रहित जिनागमानुसार श्रावकोचित आचरण से युक्त हो तभी वह आहारादि दान देने का अधिकारी हो सकता है।

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