।। चौबीस तीर्थंकर ।।
सुहं वसामोजीवामो जेसिं मे नत्थि किंचण।
मिहिलाए डज्झमाणीए न मे डज्झइ किंचण।। उत्तराध्ययन सूत्र 9ध्14
सुसुखं वत जीवामो वेषं नो नत्थि किंचन।
मिथिलाए दह्मानाए न मे किन्चि अ दह्ते।। महाजनक जातक
मिथिलायां प्रदीप्तायां न में किन्चन दह्ते।। महाभारत

बाईसवें तीर्थंकर नेमिनाथ ;अरष्टिनेमिद्ध

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कुशार्थ देश के शौर्यपुर नगर का स्वामी राजा शूरसेन हुआ। उसके वंश में राजा समुद्रविजय हुए। उनकी रानी शिवादेवी से बाईसवें तीर्थंकर नेमिनाथ का जन्म हुआ। वे सूर्य से भी अधिक तेजस्वी थे। भगवान् नमिनाथ की परंपरा के पाॅंच लाख वर्ष बीत जाने पर नेमि जिनेन्द्र उत्पन्न हुए थे। उनकी आयु एक हजार वर्ष थी। शरीर दस धनुष ऊॅंचा था। किसी एक समय जलक्रीड़ा करते समय सत्यभामा की व्यंग्योक्ति के फलस्वरूप नागशय्या पर चढ़कर शांग नाम का दिव्य धनुष चढ़ा दिया तथा दिग्दिगन्त को पूर्ण करने वाला शंख पूर दिया। यह जानकर कृष्ण को आशंका उत्पन्न हो गई कि नेमिनाथ हमारा राज्य न ले लें। वे भगवान् के वैराग्य का साधन जुटाने लगे। इस हेतु उन्होंने बाडे़ में बहुत से पशुओं का बंद करा दिया। जब नेमिनाथ दूल्हा बनकर राजीमती से विवाह करने हेतू प्रस्थान कर रहे थे, तब उन्हें मार्ग में ये पशु बाड़े में एकत्रित दिखाई दिए। पूछने पर रक्षक ने बतलाया कि आपके विवाह में मारने के लिए इन्हें कृष्ण ने बुलाया है। नेमिश्वर ने घोर करूण स्वर से चिल्लाते हुए मृगों को देख दयावश छुड़ा दिया। वे विचार करने लगे कि ये पशु जंगल में रहते हैं, तृण खाते हैं और किसी का कुछ अपराध नहीं करते हैं, फिर भी लोग उन्हें पीड़ा पहुॅंचाते हैं, ऐसे लोगों को धिक्कार है। इस प्रकार विचार करते हुए उन्हें श्रीकृष्ण का कपट विदित हुआ और वे विरक्त होकर दिगम्बर रूप में दीक्षित हो गए तथा गिरनार पर तप करने लगे। राजमति भी उनके पीछे-पीछे तपश्चरण के लिए चली गयी। छप्पन दिन के तप के बाद रैवतक पर्वत पर उन्हें कैवल्योपलब्धि हुई। देवों ने उनके ज्ञानकल्याणक की पूजा की। उनका उपदेश समस्त देशों में हुआ। उनकी सभा मे अठारह हजार मुनिराज थे। अंत में रैवतक पर्वत से वे मुक्ति को प्राप्त हुए। भगवान् नेमिनाथ नारायण कृष्ण के ताऊजात भाई थे। उनके समय बलदेव बलभद्र और प्रतिनारायण जरासंध भी हुए।

डाॅ. फुहरर ने मूल्यवान् मथुरा की पुरातात्विक सामग्री के ज्ञान के आधार पर यह घोषित किया था कि नेमिनाथ ऐतिहासिक व्यक्ति थे।

प्रो. एल.डी. बार्निट जैन मान्यता को श्रेय देते हुए कहते हैं-

मैं एक तथ्य की ओर ध्यान दिलाना चाहता हूॅं, जिस पर महावीर से पूर्व पाश्र्वनाथ हुए, उसी प्रकार पाश्र्वनाथ के पूर्ववर्ती अरिष्टनेमि हुए। ये वासुदेव कृष्ण के समसामयिक थे। यदि इन तीर्थंकरों में से प्रत्येक का अंतराल 200 वर्ष मानें, जो कि बहुत उचित प्रतीत होता है, तो अरिष्टनेमि की तिथि 1000 ई. पू. माननी पडे़गी। डाॅ. पार्जीटर के अनुसार महाभारत युद्ध की यही तिथि थी। इसमें कृष्ण ने लगभग 950 ई. पूर्व में भाग लिया था।

महाभारत में अरिष्टनेमि को जिनेश्वर कहा गया है। यह जैन शब्द है। महाभारत मे उन्हें अहिंसा का प्रचार करते हुए वर्णित किया गया है।

अरिष्टनेमि की एक मूर्ति मथुरा के कंकाली टीले से प्राप्त हुई है। संभवतः यह कनिष्क के काल की है। जिस पर निम्नलिखित अभिलेख है-

अ................................ ष 20 ;दद्ध व 2 दि 201
ब................................धितुमि ;तशिद्ध रिये भग्वते अरिष्टणमिस्य ;वलर्तद्ध
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इससे निर्देश प्राप्त होता है कि मित्रशी ने अरिष्टनेमि की एक मूर्ति कनिष्क के शासन काल के 18वें वर्ष में बनवाई थी।

इण्डो सीथियन युग का एक अन्य अभिलेख मथुरा की सर्वतोभद्रिका जिन प्रतिमा से प्राप्त हुआ है। चालुक्य अभिलेख, जो कि लक्ष्मेश्वर में प्राप्त हआ है, में 22वें तीर्थंकर को शंख जिनेन्द्र कहा गया है। शंख भगवान् नेमिनाथ का चिन्ह माना जाता है।

डाॅं. प्राणनाथ ने एक बेबीलोनिया के राजा नेबुचंदनजर ;1140 ई. पूर्वद्ध का एक ताम्रपत्र प्रकाशित कराया है, जिसमें निर्देश है कि राजा भगवान् नेमि कि वंदना के लिए रैवतक ;गिरनारद्ध पर आया। नेमिनाथ की सेवा में उसने ताम्रपत्र अर्पित किया। दानपत्र पर उक्त पश्चिम-एशियायी नरेश की मुद्रा भी अंकित है।

स्कन्र्ध पुराण में कहा गया है-

वामनोेपि ततश्चक्रे तत्र तीर्थावगाहनम्।
याद्रगू्रपः शिवो दृष्टः सूर्यबिम्बे दिगम्बरः।।
पद्मासनस्थितः सौम्यस्तथा तं तत्र संस्मरन्।
प्रतिष्ठाप्य महामूर्ति पूज्यामास वासरम्
मनोेेभीष्टार्थ सिद्ध्यर्थं ततः सिद्धिमवाप्तवान्।
नेमिनाथः शिवेत्येवं नाम चक्रे स वामनः।।

वामन ने भी वहां तीर्थ बनाया। उसे सूर्य के बिम्ब में दिगम्बर रूपधारी शिव दिखाई दिये। वे पद्यासन में स्थित थे, सौम्य थे। उन्हें वहाॅं स्मरण करते हुए महामूर्ति के रूप में प्रतिष्ठापित कर वामन की अपने मन के अभीष्ट प्रयोजन की सिद्धि के लिए पूजा की। अनंतर उसे सिद्धि प्राप्त हुई। उस वामन ने नेमिनाथ शिव, ऐसा नाम रखा।

स्कन्ध पुराण प्रभास भाग 14, 94-95

जैन परम्परा के अनुसार भगवान् अरिष्टनेमि के पिता समुद्रविजय तथा श्रीकृष्ण के पिता वसुदेव भाई भाई थे। अरिष्टनेमि का जन्म यमुना के किनारे शौरीपुर में हुआ था। यह स्थान आगरा के समीप है।

भगवान् पाश्र्वनाथ

भगवान् पाश्र्वनाथ 23वें तीर्थंकर थे। इनका जन्म आज से लगभग तीन हजार वर्ष पहले वाराणसी नगरी में हुआ था। यह भी राजपुत्र थे। इनकी चित्तवृति प्रारम्भ से ही वैराग्य की ओर विशेष थी। माता-पिता ने कई बार इनसे विवाह का प्रस्ताव किया किन्तु उन्हांने सदा हंसकर टाल दिया। एक बार ये गंगा के किनारे घूम रहे थे। वहंा पर कुछ तापसी आग जलाकर तपस्या करते थे। ये उनके पास पहुंचे और बोले, ‘इन लक्कड़ों को जलाकर क्यों जीवहिंसा करते हो?‘ कुमार की बात सुनकर तापसी बड़े झल्लाये और बोले, ‘कहां है जीव ?‘ तब कुमार ने तापसी के पास से कुल्हाड़ी उठाकर ज्योंही जलती हुई लकड़ी को चीरा तो उसमें से नाग और नागिन का जलता हुआ जोड़ा निकला। कुमार ने उन्हें मरणोन्मुख जानकर उनके कान में मूलमंत्र दिया और दुःखी होकर चले गये। इस घटना से उनके हृदय को बहुत वेदना हुई। जीवन की अनित्यता ने उनके चित्त को और भी उदास कर दिया और वे राजसुख को तिलांजलि देकर प्रव्रजित हो गये। उसके बाद वे अहिच्छेत्र के वन मे ध्यानस्थ थे। ऊपर से उनके पूर्वजन्म का वैरी कोई देव कहीं जा रहा था। इन्हें देखते ही उसका पूर्वसंचित वैर भाव भड़क उठा। वह उनके ऊपर ईंट और पत्थरों की वर्षा करने लगा। जब उससे भी उसने भगवान् के ध्यान मंे विघ्न पड़ता न देखा तो मूसलाधार वर्षा करने लगा। आकाश में मेघों ने भयानक रूप धारण कर लिया उनके गर्जन-तर्जन से दिल दहलाने लगा। पृथ्वी पर चारों ओर पानी ही पानी उमड़ पड़ा।

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