।। चौबीस तीर्थंकर ।।

पन्द्रहवें तीर्थंकर धर्मनाथ

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रत्नपुर नगर में कुरूवंशी काश्यप गोत्री महातेजस्वी भानु नामक राजा राज्य करते थे। उनकी महादेवी का नाम सुप्रभा था। उनके यहाॅं पन्द्रहवें तीर्थंकर धर्मनाथ का जन्म हुआ। वे अत्यंत ऊॅंचे थे, अत्यंत शुद्ध थे, दर्शनीय थे, उत्तम आश्रय देने वाले थे तथा सबका पोषण करने वाले थे। राज्यकाल व्यतीत करते हुए एक दिन उल्कापात देखकर उन्हें वैराग्य हो गया। उन्होंने सुधर्मनामक ज्येष्ठ पुत्र को राज्य दे दिया और वन में जाकर दिगम्बर दीक्षा ले ली। दूसरे दिन आहार लेने के लिए वे पाटलीपुत्र नगर में गए। धन्यषेण राजा ने उन्हें आहार देकर पन्चाश्चर्य प्राप्त किए। एक वर्ष तप कर उन्होंने पौष शुक्ल पूर्णिमा के दिन केवलज्ञान प्राप्त किया। धर्मोपदेश देते हुए उन्होंने अनेक स्थानों पर विहार किया। चैसठ हजार दिगम्बर मुनि उनके साथ रहते थे। उन्होंने अंत मंे सम्मेदशिखर से मोक्ष प्राप्त किया। इनके तीर्थ में सुदर्शन नामक बलभद्र और पुरूषसिंह नामक नारायण तथा मधुक्रीड नामक प्रतिनारायण हुआ। तीसरे मघवा और चैथे सन्तकुमार चक्रवर्ती भी इनके तीर्थ में हुए।

सोलहवें तीर्थंकर शांतिनाथ

कुरूजांगल देश के हस्तिनापुर नगर में राजा विश्वसेन राज्य करते थे। उनकी महारानी का नाम एरा थी। इनके तीर्थंकर शान्तिनाथ का जन्म हुआ। पिता ने उन्हें साम्राज्य लक्ष्मी का स्वामी बनाया। उन्होंने भरत क्षेत्र के षट्खण्ड पर विजय प्राप्त कर चक्रवर्ती पद प्राप्त किया। दीर्घकाल तक राज्य का उपभोग करते हुए वे संसार से निवृत्त हो गए। उन्होंने नारायण पुत्र को राजय देकर दिगम्बर दीक्षा धारण की। उन्होंने सिद्ध परमेष्ठी को नमस्कार कर पंचमुष्टियों द्वारा केशलोंच कर सब परिग्रह त्याग दिया। निरंतर सोलह वर्ष तप करने के बाद उन्हें लोकालोक प्रकाशक केवलज्ञान की प्राप्ति हुई। उनकी धर्मसभा मंे बासठ हजार दिगम्बर मुनि थे। विभिन्न भागों में भ्रमण कर उन्होंने धर्मोपदेश दिया। अंत मंे वे सम्मेदाचल से मुक्त हुए।

सत्रहवें तीर्थंकर कुन्थुनाथ

कुरूजांगल देश के हस्तिनापुर नगर में कौरववंशी काश्यप गोत्री महाराज शूरसेन तथा उनकी पटरानी श्रीकांता से तीर्थंकर कुन्थुनाथ का जन्म हुआ। उन्होंने चक्रवर्ती की विभूति प्राप्त की। अपने पूर्वभव का स्मरण करने से उन्हें आत्मज्ञान प्राप्त हुआ। वे अपने पुत्र को राज्य देकर वन में चले गए। वहाॅं उन्होंने दिगम्बर दीक्षा धारण कर ली। सोलह वर्ष के तप के बाद एक दिन वे वेला का नियम लेकर वन में तिलकवृक्ष के नीचे विराजमान हो गए। वहीं चैत्रशुक्ल तृतीया के दिन सायंकाल के समय केवलज्ञान उत्पन्न हो गया। उनकी धर्मसभा में साठ हजार दिगम्बर मुनिराज थे। अने देशों में विहार करते हुए अंत में वे सम्मेदाचल पहुॅंचे। वहाॅं बैशाख शुक्ल प्रतिपदा के दिन समस्त कर्मों को निर्मूल कर उन्होंने परमपद प्राप्त किया।

अठारहवें तीर्थंकर अरनाथ

कुरूजांगल देश के हस्तिनापुर नगर में काश्यप गोत्रीय राजा सुदर्शन की महारानी मित्रसेना की कुक्षि से तीर्थंकर अरनाथ का जन्म हुआ। उन्हें चक्रवर्ती का वैभव प्राप्त किया। एक बार मेघाच्छत्र आकाश को देखकर वे विरक्त हो गए। उन्होंने दिगम्बर दीक्षा धारण कर ली। तपश्चरण करते हए वे किसी समय पारणा के लिए चक्रपर नगर में गए वहाॅं राजा अपराजित ने उन्हें आहार दिया। सोलह वर्ष तक रने के बाद घातिया कर्म नष्टकर उन्होंने अर्हन्त पद पाया। उन्होंने धर्मोपदेश देने हेतु अनेक देशों में विहार किया। उनकी धर्मसभा में पचास हजार दिगम्बर मुनि थे। अन्त में चैत्र कृष्ण अमावस्या के दिन रेवती नक्षत्र में मोक्ष प्राप्त किया। इन्हीं के तीर्थ में सुभोम चक्रवर्ती, नन्दिषेण बलभद्र, पुण्डरीक नारायण और निशुम्भ प्रतिनारायण हुए।

उन्नीसवें तीर्थंकर मल्लिनाथ

मिथिला नगरी में इक्ष्वाकुवंशी काश्यप गोत्री कुंभ नामक राजा राज्य करते थे। उनकी प्रजावती रानी से उन्नीसवें तीर्थंकर मल्लिनाथ का जन्म हुआ। कुमार काल के सौ वर्ष बीत जोन पर एक दिन भगवान् मल्लिनाथ ने देखा कि समस्त नगर उनके विवाह के लिए सजाया गया है। यह देखकर उन्हें पूर्वजन्म के अपराजित विमान का स्मरण हो आया। वे वीतरागता की महिमा का चिंतन करने लगे और विरक्त होकर उन्होंने दिगम्बर दीक्षा ले ली। इन्द्रों ने दीक्षा कल्याणक के समय होने वाला अभिषेक महोत्सव किया। छह दिन तप के बाद उन्हें कैवल्य हुआ। उन्होंने दीर्घकाल तक धर्मोंपदेश दिया। चालीस हजार दिगम्बर मुनिराज उनके साथ थे। जब उनकी आयु एक माह बाकी रह गई तब वे सम्मेदाचल पर पहुंचे। वहाॅं पर पाॅंच हजार मुनियों के साथ उन्होंने प्रतिमायोग धारण किया और फाल्गुन शुक्ला पंचमी के दिन भरणी नक्षत्र में संध्या के समय तनुवातवलय-मोक्षस्थान प्राप्त कर लिया। मल्लिनाथ जिनेन्द्र के तीर्थ में पद्म चक्रवर्ती, नन्दिमित्र बलभद्र, दत्त नारायण और बलीन्द्र प्रतिनारायण हुए।

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बीसवें तीर्थंकर मुनिसुव्रतनाथ

मगध देश के राजगृह नगर के हरिवंश शिरोमणि सुमित्र नामक काश्यपगोत्री राजा की सोमा रानी से तीर्थंकर मुनिसुव्रतनाथ का जन्म हुआ। कुमारकाल व्यतीत होने पर उन्हें राज्याभिषेक की प्राप्ति हुई। एक बार उनके यागहस्ती ने वन का स्मरण कर खानापीना बंद कर दिया। महाराज मुनिसुव्रत नाथ अवधिज्ञान के द्वारा उसके मन की बात जान गए। उन्होंने कहा कि पूर्वजन्म मे यह हाथी तालपुर नगर का स्वामी नरपति नामक राजा था। वहाॅं अपने उच्च कुल के अभिमान के कारण खोटी लेश्याओं से इसका चित्त घिरा रहता था। एक बार इसने किमिच्छक दान दिया, जिसके फलस्वरूप यह हाथी हुआ। भगवान् के वचन सुनकर हाथी प्रबोध को प्राप्त हुआ। भगवान् ने भी विरक्त हो दिगम्बर दीक्षा धारणकर ली। ग्यारह मास तप कर उन्हें कैवल्य की प्राप्ति हुई। इन्द्रांे ने ज्ञानकल्याणक का उत्सव किया और मानस्तम्भ आदि की रचना की। उन्होंने अनेक सम्पदाओं सेविभूषित समवसरण की रचना की। धर्मोपदेश देते हुए उन्होंने आर्य क्षेत्र में विहार किया। उनकी धर्मसभा में तीस हजार मुनिराज थे। उन्होंने सम्मेदशिखर से निर्वाणलाभ किया। इन्हीं मुनिसुव्रतनाथ तीर्थंकर के तीर्थ में हरिषेण चक्रवर्ती हुआ। इन्हीं के तीर्थ में बलभद्र राम, नारायण लक्ष्मण और प्रतिनारायण रावण हुआ।

इक्कीसवें तीर्थंकर नमिनाथ

बड़ग देश में मिथिला नामक नगरी थी। वहाॅं भगवान् ऋषभदेव के वंशज विजय महाराज शासन करते थे। उनकी महारानी वप्पिला से तीर्थंकर नमिनाथ का जन्म हुआ। एक बार दो देव उनकी राजसभा में उनके दर्शन हेतु आए। वे विदेह क्षेत्र में अपराजित केवली की वंदना कर आए थे। उन्होंने अपराजित केवली से पूछा था कि इस समय भरत क्षेत्र में भी कोई तीर्थंकर है। सर्वदर्शी अपराजित भगवान् ने तीर्थंकर नमिनाथ के विषय में बतलाया। फलतः वे वंदना के लिए आए। देवों के चले जाने पर नमिनाथ संसार परिभ्रमण के विषय में विचार करने लगे। उन्हें वैराग्य हो गया, फलस्वरूप वे प्रव्रजित हो गए। उन्होंने नव वर्ष तप कर केवल ज्ञान की प्राप्ति की। उनकी धर्मसभा में 20 हजार दिगम्बर मुनिराज थे। संसार के प्राणियों का सुमार्ग का उपदेश देते हुए अंत में सम्मेदाचल से उन्होंने मुक्तिलक्ष्मी प्राप्त की।

नमिनाथ जनक के वंश के थे। जनक को उपनिषद् काल का दार्शनिक राजा माना जाता है। डाॅ. हीरालाल जी ने उनके अस्पष्ट ऐतिहासिक आधार को जोड़ने का प्रयास किया। उनकी कड़ी का आधार उत्तराध्ययन सूत्र का ‘नमिपव्वज्जा‘ नामक 9वाॅं अध्ययन है। इसके 14वें पद्य का बौद्ध महाजनक जातक तथा महाभारत के शान्तिपर्व की निम्नलिखित पंक्तियों से साम्य है -

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