।। चौबीस तीर्थंकर ।।

अपने शासन के मध्य उन्होंने प्रजाहित के अनेक कार्य किए और उन्हें असि, मषि, कृषि, विद्या, वाणिज्य और शिल्प इन छह कर्मों का उपदेश दिया। इसका कारण यह है कि कल्पवृक्षों के अभाव में जीवन कठिन हो रहा था। अतः जीविका का कोई उपाय बतलाना आवश्यक था। उसके अभाव में मनुष्य भूखों मर जाता। ऋषभदेव ने कर्मभूमि के प्रारंभ में प्रजा के हित के लिए समस्त आवश्यक प्रबंध किए। इसके फलस्वरूप उन्हें प्रजापति, ब्रह्मा, विधाता, आदिपुरूष आदि नामों से पुकारा गया।

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ऋषभदेव का विवाह यशस्वती और सुनंदा से हुआ। यशस्वती का दूसरा नाम नंदा भी था। ऋषभदेव के एक सौ पुत्र और 2 कन्यायें थीं। रानी यशस्वती के भरतादिक 100 पुत्र तथा ब्राह्ाी कन्या उत्पन्न हुई। सुनंदा के बाहुबली पुत्र तथा सुंदरी कन्या का जन्म हुआ। उन्होंने अपने पुत्रों को क्षात्र धर्म की शिक्षा दी। ब्राह्ाी तथा सुंदरी को क्रमशः लिपि विद्या और अंकगणित सिखाई। ब्राह्ाी के नाम पर ब्राह्ाी लिपि का प्रचलन हुआ, जो हमारे प्राचीन शिलालेखों में प्राप्त होती है। बाहुबली को उन्होंने हस्तिविद्या, अश्वविद्या, धुनर्विद्या, वैद्यक, कामशास्त्र और ब्रह्मविद्या की शिक्षा दी।

देवों ने बारह योजन विस्तृत समवसरण ;धर्मसभाद्ध की रचना की। इसमें मुनि, आर्यिका, श्रावक तथा श्राविका यह चतुर्विध संघ और चार निकाय देव आसीन हुए। समवसरण में बारह सभायें थी, जिनमें देव, मनुष्य, तिर्यच्च सभी अपने अपने स्थान पर बैठे और भगवान् की दिव्यध्वनि का श्रवण किया। यह ध्वनि भगवान् के एक हजार वर्ष दृढ़तापूर्वक मौन धारण के बाद निसृत हुई थी। मेघेश्वर जयकुमार तथा उनकी पत्नी सुलोचना ने कालांतर में दीक्षा ले ली। जयकुमार द्वाशागड. के पाठी और सुलोचना ग्यारह अंगों की धारक हो गई। भगवान् के 84 गणधर ;प्रमुख शिष्यद्ध हो गए और गणों की संख्या चैरासी हजार हो गई। भगवान् की कुल आयु चैरासी लाख पूर्व वर्ष की थी। इस प्रकार एक लाख पूर्व वर्ष तक उन्होंने पृथिवी पर धर्मोपदेश देते हुए विहार किया। अंत में कैलाश पर्वत पर आरूढ़ हो योगों का निरोधकर उन्होंने मोक्ष प्राप्त किया।

ऋषभदेव के बाद

ऋषभदेव के बाद अजिन से लेकर नमि तक का जीवनवृत्त यद्यपि जैन साहित्य में उपलब्ध होता हैं, किन्तु अधिक विस्तार में नहीं प्राप्त होता है। यहाॅं तक कि नेमिनाथ, पाश्र्वनाथ और महावीर का जीवनवृत्त अधिक विस्तार में प्राप्त नहीं होता। इसका प्रमुख कारण यह है कि कुछ विशिष्ट घटनाओं को छोड़कर सबके जीवन की घटनाओं में साम्य है। इसके फलस्वरूप सभी के पंचकल्याणक हुए। सभी महान् विभूति के धारक हुए। ऋषभदेव, नेमिनाथ, पाश्र्वनाथ और महावीर के जीवन में कुछ विशिष्ट घटनायें घटित हुई, जिनको आधार बनाकर कवियों ने काव्य लिखे। एक कारण यह भी हो सकता है कि नेमिनाथ से पूर्ववर्ती तीर्थंकरों को हुए चॅूंकि दीर्घ अंतराल हो गया, इस बीच शास्त्र मौखिक श्रवण परंपरा से ही सुरक्षित रहे। बाद में स्मृति के ह्रास के कारण लोग विस्तृत जीवनवृत्त को भूल गए और कुछ सामान्य विशेषताओं का ही वे याद रख सके।

द्वितीय तीर्थंकर अजितनाथ

इनका जन्म साकेत नगर के अधिपति इक्ष्वाकुवंशीय काश्यप गोत्री राजा जितशत्रु के यहाॅं महारानी विजयसेना के गर्भ से हुआ था। जब उनकी आयु का चतुर्थांश ;अठारह लाख पूर्वद्ध प्रमाण काल बीत चुका, तब उन्हें राज्य प्राप्त हुआ। एक बार उन्होंने अपने महल की छत से उल्का देखी। उसी समय वे विषयों से विरक्त हो गए। उन्होंने अपने पुत्र अजितसेन को राज्य दे दिया और वन की ओर चले गए। दिगम्बर दीक्षा लेते ही उन्हें मनः पर्यय ज्ञान उत्पन्न हो गया। बारह वर्ष तप कर उन्हें केवलज्ञान की प्राप्ति हो गई। उन्होंने समस्त आर्य क्षेत्र में विहार कर अन्त में सम्मेदाचल से मुक्ति प्राप्त की। उनके समवसरण में एक लाख दिगम्बर मुनि थे। इन्हीं के तीर्थ में सगर चक्रवती हुए। उन्होंने दृढ़ धर्मा केवली के समीप दिगम्बर दीक्षा धारण की, उनके साठ हजार पुत्र भी मुनि हो गए।

तृतीय तीर्थंकर संभवनाथ

इनका जन्म श्रावस्ती नगरी में दृढ़राज्य के यहाॅं हुआ। दृढ़राज्य काश्यप गोत्री और इक्ष्वाकुवंशी थे। संभवनाथ की माता का नाम सुषेणा था। वे सदा देवोपनीत सुख का उपभोग किया करते थे। एक बार मेघों का विभ्रम देखने से उन्हें बोधि की प्राप्ति हुई। लोकान्तिक देवों ने आकर उनके वैराग्य की प्रशंसा की तथा भगवान् भी अपने पुत्र को राज्य देकर सहेतुक वन में चले गए तथा एक हजार राजाओं के साथ दिगम्बर वेष धारण कर लिया। वे चैदह वर्ष तक मौन रहे। कार्तिक कृष्ण चतुर्थी के दिन मृगशिरा नक्षत्र में उन्हें ज्ञान की प्राप्ति हुई। उन्हांेने धर्मोपदेश देते हुए आर्यदेशों में विहार किया। उनकी धर्मसभा में 2 लाख दिगम्बर मुनि थे। अंत में सम्मेदाचल से उन्हें मुक्ति लाभ हुआ।

चतुर्थ तीर्थंकर अभिनंदननाथ

अयोध्या नगरी में इक्ष्वाकुवंशी, काश्यपगोत्री राजा स्वयंवर की पटरानी सिद्धार्था के गर्भ में चतुर्थ तीर्थंकर अभिनंदननाथ के आने से छह मास पूर्व ही रत्नों की वर्षा होने लगी। बैशाख शुक्ल षष्ठी को शुभ नक्षत्र में माता ने सोलह स्वप्रे देखे। स्वप्नों का फल तीर्थंकर बालक का गर्भ में आना जान माता परम हर्षित हुई। माघ शुक्ल द्वादशी के दिन बालक का जन्म हुआ। इन्द्र ने बालक का जन्माभिषेक संस्कार कर अभिनंदन नाम रखा। एक दिन आकाश में मेघों की शोभा देखते समय मेघों में एक सुंदर महल प्रकट हुआ जो थोडी ही देर में नष्ट हो गया। इस घटना से उन्हें आत्मज्ञान प्राप्त हो गया। वे सोचने लगे कि विनाशीक भोग इस संसार में रहने हुए मुझे अवश्य ही नष्ट कर देंगे। जब वे ऐसा विचार कर ही रहे थे, उसी समय लौकान्तिक देवों ने आकर उनकी पूजा की। देवों ने भगवान् का निष्क्रमण कल्याणक किया। भगवान् ने दिगम्बर दीक्षा धारण कर ली। अठारह वर्ष मौन से व्यतीत कर वे ध्यानारूढ़ हुए और उन्हें केवलज्ञान हो गया। वे आर्यखंड में दूर-दूर तक विहार कर उपदेश देते रहें। वे तीन लाख दिगम्बर मुनियों के स्वामी थे। अंत में सम्मेदगिरि से उनका निर्वाण हुआ।

पंचम तीर्थंकर सुमतिनाथ

भगवान् वृषभदेव के वंश तथा गोत्र में उत्पन्न क्षत्रियवंशी राजा मेघरथ के यहाॅं अयोध्या में तीर्थंकर सुमतिनाथ का जन्म हुआ। उनकी माता का नाम मंगला था। वे सर्वांग सुंदर थे। दिव्य राज्यलक्ष्मी का उपभोग करते हुए वे संसार से विरक्त हो गए। उन्होंने सहेतुक वन में एक हजार राजाओं के साथ दिगम्बर दीक्षा ले ली। संयम के प्रभाव से उन्हें उसी समय मनः पर्याय ज्ञान उत्पन्न हो गया। दूसरे दिन वे भिक्षा के लिए सौमनस नामक नगर में गए। वहाॅं पद्यराजा ने पडगाह कर उन्हें आहार दिया। उन्होंने सर्वपाप की निवृत्ति रूप सामायिक संयम धारण किया। वे मौनसे रहते थे, वे अत्यंत सहिष्णु थे। उन्होंने बीस वर्ष तप किया। चैत्र शुक्ल एकादशी को उन्हें केवलज्ञान प्राप्त हुआ। जिस प्रकार अच्छी भूमि में बोया बीज महान् फल को देता है, उसी प्रकार प्रशस्त, अप्रशस्त सभी भाषाओं में भव्य जीवों के लिए उन्होंने जो दिव्यध्वनि रूपी बीज बोया, उससे भव्य जीवों को रत्नत्रय रूप फल की प्राप्ति हुई। वे तीन लाख बीस हजार दिगम्बर मुनियों के स्वामी थे। उनका सम्मेदाचल से निर्वाण हुआ।

षष्ठ तीर्थंकर पद्यप्रभ

कौशाम्बी नगरी में इक्ष्वाकुवंशी काश्यप गोत्री धरण नाम का एक बड़ा राजा था। उसकी सुसीमा नामक रानी थी। इन्हीं से षष्ठ तीर्थंकर पद्यप्रभ का जन्म हुआ। वे सबको आन्नदित कर वृद्धि को प्राप्त होने लगे। उनके राज्यकाल में आठों महाभय समूल नष्ट हो गए, दरिद्रता दूर भाग गयी। धन स्वच्छन्दता से बढ़ने लगा, सब मंगल प्रकट हो गए और सब सम्पदाओं का समागम हो गया। किसी समय दरवाजे पर बॅंधे हुए हाथी की दशा सुनने से उन्हें अपने पूर्वभवों का ज्ञान हो गया। वे विचार करने लगे कि संसार में ऐसा कौनसा पदार्थ है, जिसे मैंने देखा न हो, छुआ न हो, सूॅंघा न हो, सुना न हो, खाया न हो, जिससे वह नए के समान जान पड़ता है। जिस कार्य से पाप और पुण्य दोनों उपलेपों का नाश हो जाता हैं, विद्वानों को सदा उसी का ध्यान करना चाहिए। उसी का आचरण करना चाहिए, उसी का अध्ययन करना चाहिए। इस प्रकार विचार कर उन्होंने दिगम्बर दीक्षा धारण कर ली। छह माह बाद उन्हें केवलज्ञान हो गया। भव्य जीवों को प्रबोधित करते हुए अन्त में वे सम्मेद शिखर से परिनिर्वाण को प्राप्त हुए। उनकी सभा में तीन लाख बीस हजार दिगम्बर मुनि थे।

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