।। आहार के समय क्या विचार करते हैं? ।।
jain temple304

द्रव्य = (आहारादि पदार्थ के शुद्धि, अशुद्धि जानकर), क्षेत्र = जंगल (जंगली, उष्ण प्रदेश) अनूप (जहां पानी वृक्ष पर्वतों की बहलता हो) साधरण (जहां वृक्ष जल पर्वतों की न बहलताहै न कम है वह साधरण प्रदेश कहलाता है) काल = (शीत उष्ण समशीतोष्ण वर्षादि को जानकर) भाव = (आत्मा के परिणाम श्रद्धा उत्साह को जानकर) कलवीर्य = (अपने शरीर के बल को एवंसंहनन, शक्ति, पाचन, क्षमता (वात, कफआदि की कैसीप्रवृत्ति है)) इत्यादि बातो को ध्यानमें रखते हुए, जिनागम मे जैसा कहा है उसी प्रकार आहार ग्रहण करके एषणासमिति का पालन करते है तथा आहार के समय मनःपर्यंय ज्ञान, अवधि ज्ञान, निमित्त ज्ञान अन्य या विशेषज्ञान का प्रयोग नही करते। आहार के समय अपने अनशन स्वच भाव का, बाहरी भावनाओ का, संसार शरीर भोगो से आहार के समय अपने अनशनस्वभाव का, बाहरभावनाओ का, संसार शरीर भोगो से विरक्त भाव धारण किये हुए, मन-वचन-काय तीनो गुप्तियों की रक्षा, मूलगुण व उत्तर गुणों की रक्षा, संयम व शील की रक्षा करते हुए स्वभाव का चिंतन करते है तथा कषायों का शमन, इन्द्रियो का दमन करते हुए निर्मल परिणामों के साथ संयम, साधना, ज्ञान, तप, ध्यान की वृद्धि के लए प्रसन्न चित्त हो आहार ग्रहण करते हैं। आज्ञा = (जिनाज्ञा के उल्लंघन से रहित), अनवस्था = (स्वेच्छा प्रवृत्ति) मिथ्यात्वाराधना = (सम्यक्त्व के प्रतिम कूल आचरण) आत्मनाश = (स्व का विनाश) संयमनाश = (संयम की हानि जिससे हो) इन पांचों का परिहार कर ही ‘सिंहवृत्ति’ से ये मुनिराज वीरचर्या का अनुकरण करतेहैं।

आहार के भेद-

आहार के सामान्यता 4 भेद होते हैं- खाद्य, स्वाद, लेहय, पेय (जिसका कथन पहले किया जा चुका है) आहार के 3 भेद भी हैं-

1. सर्वेषण,

2. विद्वैषण,

3. शुद्धासन।

1 सर्वेषण - एषणा समिति से श्ज्ञुद्ध आहार सर्वेषण कहलाता है तथा 5 प्रकार के रसों (खट्टा, मीठा, कड़वा, चरपरा, कषायला) अथवा षड् रसों (घी, तेल, नमक, बूरा, दूध, दही) से, साग-सब्जी, दान-भात, रोटी, फलो सहित शुद्ध, प्रासुक, मर्यादित आहार ‘सर्वोषण’ कहलाता है।

2 विद्वैषण - 5 प्रकार के रसो से या 6 प्रकार के रसो से रहित, भातकामांड या कंजी शुष्कपत्र, मक्शन, छाछ आदि से सहित आहार ‘विद्वैषण’ है अर्थात् रसादि से रहित किन्तु छाछ आदि से सहित आहार विद्वैषण आहार कहलाता है।

3 शुद्धासन - 5 रसा या षट् रस रहित, छाछ, कांजी (भात या मांड) से भी रहित जो पाक से अवर्तीण हुआ मात्र है, किंचित भी अन्य रूप नही किया गया है वह शुद्धा सन है अर्थात् केवल पकाये हुए भात, दाल, रोटी,सब्जी जिनमे नमक-मिर्चमसाला आदि कुछ भी नहीं डाला गया है वह आहार ‘शुद्धासन’ कहलाता है।

ये तीनो प्रकार का आहार ग्रहण करने योग्य है तथा सर्वरसो से सहित, सर्वव्यंजनो से सहित आहार कथंचित् ग्रहण करने योग्य है कदाचित् अयोग्य भी है।