।। आओ पूजन करें ।।

स्वस्त्युच्छलद्विमल-बोध-सुधाप्लवाय।
स्वास्ति स्वभाव-परभाव-विभासकाय।
स्वस्ति त्रिलोक-विततैक-चिदुद्गमाय।
स्वास्ति त्रिकाल-सकलायत-विस्तृताय।।3।।

अन्वयार्थ-(उच्छलाद्-विमलबोध-सुधा-प्लवाय) भासमान निर्मल केवल ज्ञानरूपी अमृत में तैरने वाले स्वभाव और परभाव के प्रकाशक, तीन लोक में व्याप्त एकमात्र चैतन्य को प्रगट करने वाले और त्रिकालवर्ती एवं पदार्थों में ज्ञान के द्वारा व्याप्त जिनेन्द्र आपकी जय हो, जय हो।

अर्थ-उछलते हुए निर्मल केवलज्ञान रूपी अमृत में तैरने वाले स्वभाव और परभाव के प्रकाशक, तीन लोक में व्याप्त एकमात्र चैतन्य को प्रगट करने वाले और त्रिकालदर्शी एवं पदार्थां में ज्ञान के द्वारा व्याप्त जिनेन्द्र आपकी जय हो।

द्रव्यस्य शुद्धिमधिगम्य यथानुरूपं,
भावस्य, शुद्धिमधिकामधि गंतुकामः।
आलंबनानि विविधान्यवलम्ब्य वल्गन्,
भूतार्थ-यज्ञ-पुरूषस्य करोमि यज्ञं।।4।।

अन्वयार्थ-(भावस्य) अपने भावों की (अधिक शुद्धिम अधिगन्तुकामः) परम शुद्धता को पाने का अभिलाषी मैं (यथानुरूपं) देश और काल के अनुरूप (द्रव्यस्य) जल चन्दनादि द्रव्यों की (शुद्धिम अधिगम्य) शुद्धता को पाकर (विविधानि) जिन स्तवन, जिन दर्शन आदि विविध (आलम्बनानि) आलम्बनों का (अवलम्ब्य) आश्रय लेकर (वल्गन्) प्रसन्न होता हुआ (भूतार्थ-यज्ञ-पुरूषस्य) भूतार्थ रूप पूज्य अरहन्तादि का (यज्ञ) पूजन (करोमि) करता हूं।

अर्थ-अपने भवों की परम शुद्धता को पाने का अभिलाषी मैं देशकाल के अनुरूपज ल चन्दनादि की शुद्धता को पाकर जिन स्तवन जिन बिम्ब दर्शन ध्यान आदि अवलम्बनों का आश्रय लेकर सच्चे पूज्य पुरूष अरहंतादिक की पूजा करता हूं।

अर्हत्पुराण-पुरूषोत्तम-पावनानि।
वस्तून्यनूनमखिलान्ययमेक एव।।
अस्तिमन्ज्वलद्विमल-केवल-बोधवन्हौ।
पुण्यं समग्रमहमेकमना जुहोमि।।5।।

अन्वयार्थ-( (अर्हन्) हे अर्हन्त देव (पुराण पुरूषोत्तम) हे पुराण पुरूषोत्तम! (अहम्) मैं (एक-एव) असहाय, अकेला (अखिलानि पावनानि वस्तूनि) जलादि समस्त पावन द्रव्यों (का अवलम्बन लेकर) (अस्मिन् ज्वलद्-विमल-केवल-बोधवन्हौ) इस दैदीप्यामान निर्मल केवलज्ञान रूपी अग्नि में (समग्र अनन्यं पुण्य) समस्त उत्कृष्ट पुण्य को (एकमना) एकाग्र चित्त से (जुहोमि) हवन करता हूं, अर्पण करता हूं।

अर्थ- हे अरिहंत! हे पुराण पुरूषोत्तम! मैं असहाय, अकेला जलादि समस्त पावन द्रव्यों का अवलम्बल लेकर अपने पुण्य को इस दैदीप्यमान व निर्मल केवल ज्ञानरूपी अग्नि में एकाग्रचित होकर अर्पण करता हूं। थाली में पुष्पांजलि अर्पण करें।

स्वस्ति मंगल

श्रीवृषभी नः स्वस्ति, स्वस्ति श्री अजितः
श्रीसम्भः$ स्वस्ति, स्वस्ति श्री अभिनन्दनः
श्रीमुमतिः स्वस्ति, स्वस्ति श्रीपद्मप्रभः
श्रीसुपाश्र्वः स्वस्ति, स्वस्ति श्रीचन्द्रप्रभः
श्रीपुष्पदन्तः स्वस्ति, स्वस्ति श्रीशीतलः
श्रीश्रेयानः स्वस्ति, स्वस्ति श्रीवासुपूज्यः
श्रीविमलः स्वस्ति, स्वस्ति श्री अनंतः
श्रीधर्मः स्वस्ति, स्वस्ति श्री शांतिः
श्रीकुंथुः स्वस्ति, स्वस्ति श्रीअरनाथः
श्रीमल्लिः स्वस्ति, स्वस्ति श्रीमुनिसुवतः
श्रीनमिः स्वस्ति, स्वस्ति श्रीनेमिनाथः
श्रीपाश्र्वः स्वस्ति, स्वस्ति श्रीवर्द्धमानः

(पुष्पांजलि विक्षाम)

अर्थ-प्रथम जिनेन्न्द्र श्री वृषीा नाथ जी मंगल करें।

श्री अजितनाथ जी मंगल करें।
श्री सम्भवनाथ जी मंगल करें।
श्री अभिनन्दन नाथ जी मंगल करें।
श्री सुमतिनाथ जी मंगल करें।
श्री पद्मप्रभु जी मंगल करें।
श्री सुपाश्र्वनाथ जी मंगल करें।
श्री चन्द्रप्रभु जी मंगल करें।
श्री पुष्पदन्त जी मंगल करें।
श्री शीतलनाथ जी मंगल करें।
श्री श्रेयासनाथ जी मंगल करें।
श्री वासुपूज्य जी मंगल करें।
श्री विमलनाथ जी मंगल करें।
श्री अनन्तनाथ जी मंगल करें।
श्री धर्मनाथ जी मंगल करें।
श्री शांतिनाथ जी मंगल करें।
श्री कुन्थुनाथ जी मंगल करें।
श्री अरहनाथ जी मंगल करें।
श्री मल्लिनाथ जी मंगल करें।
श्री मुनिसुव्रतनाथ जी मंगल करें।
श्री नमिनाथ जी मंगल करें।
श्री नेमिनाथ जी मंगल करें।
श्री पाश्र्वनाथ जी मंगल करें।
श्री वर्द्धमान जी मंगल करें।

अब चैंसठ परम ऋद्धियों के ऋद्धिधारी मुनिराजों से मंगल की कामना करेंगे, थाली में पुष्प क्षेपण करते जाएंगे-

नित्याप्रकम्पाद्भुत-केवललौधाः स्फुरन्मनः पर्यय-शुद्धबोधाः।
दिव्यावधिज्ञान-बलप्रबोधाः स्वस्ति क्रियासुः- परमर्षयो नः।।

अर्थ-अविनाशी, अचल और अद्भुत केवल धारक दैदीप्यमान मनः पर्ययज्ञानरूपी शुद्ध ज्ञान वाले दिव्य अवधिज्ञान के बल से प्रबुद्ध महाऋषि हमारा कल्याण करें।

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