विद्युन्माली मेरू पूजा
--स्थापना-गीता छंद--


श्री मेरू विद्युन्मालि पंचम, द्वीप पुष्कर अपर में।
तीर्थंकर का न्हवन होता है सदा तिस उपरि में।।
सोलह जिनालय हैं वहां, सुरवंद्य जिन प्रतिमा तहां।
आह्वान कर पूजूं सदा, मैं भक्ति श्रद्धा से यहां।।1।।

ऊँ ह्रीं पश्चिमपुष्करार्धद्वीपस्थविद्युन्मालिमेरूसंबंधिषोडशजिनालयजिन-बिम्बसमूह! अत्र अवतर अवतर संवौषट।
ऊँ ह्रीं पश्चिमपुष्करार्धद्वीपस्थविद्युन्मालिमेरूसंबंधिषोडशजिनालयजिन-बिम्बसमूह! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनं।
ऊँ ह्रीं पश्चिमपुष्करार्धद्वीपस्थविद्युन्मालिमेरूसंबंधिषोडशजिनालयजिन-बिम्बसमूह! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।

--अथाष्टक-गीता छंद--
क्षीरोदधि का शुचि जल लेकर तुम चरण चढ़ाने आया हूं।
भव भव का कलिमल धोने को श्रद्धा से अति हरषाया हूं।।
विद्युन्माली मेरू पंचम उसमें सोलह जिन आलय हैं।
उन सबमें भवविजयमी प्रतिमा पूजत ही मिले सुखालय हैं।।1।।
ऊँ ह्रीं पश्चिमपुष्करार्धद्वीपस्थविद्युन्मालिमेरूसंबंधिषोडशजिनालयजिन-बिम्बेभ्यः जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।

हरि चंदन कुंकुम गंध लिये जिन चरण चढ़ाने आया हूं।
मोहारिताप संतप्त हृदय प्रभु शीतल करने आया हूं।।
विद्युन्माली मेरू पंचम उसमें सोलह जिन आलय हैं।
उन सबमें भवविजयमी प्रतिमा पूजत ही मिले सुखालय हैं।।2।।
ऊँ ह्रीं पश्चिमपुष्करार्धद्वीपस्थविद्युन्मालिमेरूसंबंधिषोडशजिनालयजिन-बिम्बेभ्यः संसारतापविनाशनाय चंदन निर्वपामीति स्वाहा।

क्षीरांबुधि फेन सदृश उज्ज्वल अक्षत धोकर के लाया हूं।
क्षय विरहित अक्षय सुख हेतु प्रभु पुंज चढ़ाने आया हूं।।
विद्युन्माली मेरू पंचम उसमें सोलह जिन आलय हैं।
उन सबमें भवविजयमी प्रतिमा पूजत ही मिले सुखालय हैं।।3।।
ऊँ ह्रीं पश्चिमपुष्करार्धद्वीपस्थविद्युन्मालिमेरूसंबंधिषोडशजिनालयजिन-बिम्बेभ्यः अक्षयपदप्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।

बेला चंपक अरविंद कुमुद सुरभित पुष्पों को लाया हूं।
मदनारिजयी तव चरणों में मैं अर्पण करने आया हूं।।
विद्युन्माली मेरू पंचम उसमें सोलह जिन आलय हैं।
उन सबमें भवविजयमी प्रतिमा पूजत ही मिले सुखालय हैं।।4।।
ऊँ ह्रीं पश्चिमपुष्करार्धद्वीपस्थविद्युन्मालिमेरूसंबंधिषोडशजिनालयजिन-बिम्बेभ्यः कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।

पूरणपोली खाजा गूझा मोदक आदिक बहुत लाया हूं।
निज आतम अनुभव अमृत हित नैवेद्य चढ़ाने आया हूं।।
विद्युन्माली मेरू पंचम उसमें सोलह जिन आलय हैं।
उन सबमें भवविजयमी प्रतिमा पूजत ही मिले सुखालय हैं।।5।।
ऊँ ह्रीं पश्चिमपुष्करार्धद्वीपस्थविद्युन्मालिमेरूसंबंधिषोडशजिनालयजिन-बिम्बेभ्यः क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।

मणिमय दीपक में ज्योति जले सब अंधकार क्षण में नाशे।
दीपक से पूजा करते ही सज्ज्ञान ज्योति निज में भासे।।
विद्युन्माली मेरू पंचम उसमें सोलह जिन आलय हैं।
उन सबमें भवविजयमी प्रतिमा पूजत ही मिले सुखालय हैं।।6।।
ऊँ ह्रीं पश्चिमपुष्करार्धद्वीपस्थविद्युन्मालिमेरूसंबंधिषोडशजिनालयजिन-बिम्बेभ्यः मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।

दशगंध विमिश्रित धूप सुरभि धूपायन में खेते क्षण ही।
कटुकर्म दहन हो जाते हैं मिलता समरस सुख तत्क्षण ही।।
विद्युन्माली मेरू पंचम उसमें सोलह जिन आलय हैं।
उन सबमें भवविजयमी प्रतिमा पूजत ही मिले सुखालय हैं।।7।।
ऊँ ह्रीं पश्चिमपुष्करार्धद्वीपस्थविद्युन्मालिमेरूसंबंधिषोडशजिनालयजिन-बिम्बेभ्यः अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।

एला केला अंगूरों के गुच्छे अति सरस मधुर लाया।
परमानंदामृत चखने हित फल से पूजन कर सुख पाया।।
विद्युन्माली मेरू पंचम उसमें सोलह जिन आलय हैं।
उन सबमें भवविजयमी प्रतिमा पूजत ही मिले सुखालय हैं।।8।।
ऊँ ह्रीं पश्चिमपुष्करार्धद्वीपस्थविद्युन्मालिमेरूसंबंधिषोडशजिनालयजिन-बिम्बेभ्यः मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।

जल चंदन अक्षत पुष्प चरू वर दीप धूप फल लाया हूं।
निज गुण की प्राप्ति हेतु तुम अघ्र्य चढ़ाने आया हूं।।
विद्युन्माली मेरू पंचम उसमें सोलह जिन आलय हैं।
उन सबमें भवविजयमी प्रतिमा पूजत ही मिले सुखालय हैं।।9।।
ऊँ ह्रीं पश्चिमपुष्करार्धद्वीपस्थविद्युन्मालिमेरूसंबंधिषोडशजिनालयजिन-बिम्बेभ्यः अनघ्र्यपदप्राप्तये अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।

--सोरठा--

परम शांति के हेतु, शांतीधारा मैं करूं।
सकल विश्व में शांति, सकल संघ में हो सदा।।10।।
शांतये शांतिधारा।

चंपक हरसिंगार, पुष्प सुगन्धित अर्पिते।
होवे सुख अमलान, दुख दारिद्र पलायते।।11।।
दिव्य पुष्पांजलिः।
अथ प्रत्येक अघ्र्य

-दोहा-

पंचममेरू जिन भवन, शाश्वत नित शोभंत।
पुष्पांजलि कर पूजते, मिले स्वात्म आनन्द।।1।।
इति मण्डलस्योपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत्।

--गीता छंद--

श्री मेरू पंचम की धरा पर भ्रसाल सुवन कहा।
ता पूर्व जिनधाम शाश्वत मूर्ति से शोभित अहा।।
जल गंध आदिक अघ्र्य लेकर मैं करूं नित अर्चना।
स्वातंत्र्य सुख साम्राज्य हेतु मैं करूं नित वंदना।।1।।
ऊँ ह्रीं विद्युन्मालिमेरूसंबंधिभ्रदसालवनस्थितपूर्वदिक्जिनालयजिनबिंबेभ्यः अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।

इ समेरू विद्यन्मालिमें वन भद्रसाल जु सोहता।
दक्षिण दिशा में जिनभवन निज विभव से मन मोहता।।
जल गंध आदिक अघ्र्य लेकर मैं करूं नित अर्चना।
स्वातंत्र्य सुख साम्राज्य हेतु मैं करूं नित वंदना।।2।।
ऊँ ह्रीं विद्युन्मालिमेरूसंबंधिभ्रदसालवनस्थितदक्षिणदिक्जिनालयजिनबिंबेभ्यः अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।

इ समेरू प्रथमहि ’’वन विषे’’ पश्चिम दिशा में जिनभवन।
उसमें जिनेश्वर बिंब शाश्वत, राजते भव भय मथन।।
जल गंध आदिक अघ्र्य लेकर मैं करूं नित अर्चना।
स्वातंत्र्य सुख साम्राज्य हेतु मैं करूं नित वंदना।।3।।
ऊँ ह्रीं विद्युन्मालिमेरूसंबंधिभ्रदसालवनस्थितपश्चिमदिक्जिनालयजिनबिंबेभ्यः अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।

इ समेरू के भूवन विषै उत्तरदिशी जिन सद्म हैं।
उसमें महामहनीय जिनवर, बिंब के पदपद्म हैं।।
जल गंध आदिक अघ्र्य लेकर मैं करूं नित अर्चना।
स्वातंत्र्य सुख साम्राज्य हेतु मैं करूं नित वंदना।।4।।
ऊँ ह्रीं विद्युन्मालिमेरूसंबंधिभ्रदसालवनस्थितउत्तरदिक्जिनालयजिनबिंबेभ्यः अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।

--गीता छंद--

वर द्वीप पुष्कर अर्ध में है, पांचवां सुरगिरि कहा।
नंदन विपिन में पूर्वदिक्, जिनगृह अनूपम छवि लहा।।
चंचल मनोमर्कटविजेता1, साधुगण वंदन करें।
हम पूजते नित अघ्र्य ले, भवसंतती खंडन करें।।1।।
ऊँ ह्रीं विद्युन्मालिमेरूसंबंधिनन्दनवनपूर्वदिक्जिनालयजिनबिंबेभ्यः अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।

सुरशैल पंचम में सदा, नंदन सुवन विख्यात है।
दक्षिण दिशा में जिनभवन, पूजें भविक हरषात हैं।।
चंचल मनोमर्कटविजेता, साधुगण वंदन करें।
हम पूजते नित अघ्र्य ले, भवसंतती खंडन करें।।2।।
ऊँ ह्रीं विद्युन्मालिमेरूसंबंधिनन्दनवनदक्षिणदिक्जिनालयजिनबिंबेभ्यः अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।

1. मनरूपी बन्दर को वश में करने वाले।

पंचम सुराचल1 में विपिन2, नंदन अतुल महिमा धरे।
पश्चिम दिशा में जैनगृह, अतिशयभरी प्रतिमा धरे।।
चंचल मनोमर्कटविजेता, साधुगण वंदन करें।
हम पूजते नित अघ्र्य ले, भवसंतती खंडन करें।।3।।
ऊँ ह्रीं विद्युन्मालिमेरूसंबंधिनन्दनवनपश्चिमदिक्जिनालयजिनबिंबेभ्यः अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।

सुरशैल विद्युन्मालि में, नंदनवनी तरू पंक्ति से।
जन मन हरे उत्तरदिशा के, मणिमयी जिनसद्म3 से।।
चंचल मनोमर्कटविजेता, साधुगण वंदन करें।
हम पूजते नित अघ्र्य ले, भवसंतती खंडन करें।।4।।
ऊँ ह्रीं विद्युन्मालिमेरूसंबंधिनन्दनवनोत्तरदिक्जिनालयजिनबिंबेभ्यः अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।

--दोहा--

कनकाचल4 पंचम विषे, वनसौमनस रसाल।
पूरबदिश में जिनभवन, अर्च हरूं जंजाल।।1।।
ऊँ ह्रीं विद्युन्मालीमेरूसंबंधिसौमनसवनपूर्वदिक्जिनालयजिनबिंबेभ्यः अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।

सुरगिरि वन सौमनस में, दक्षिण दिश जिनधाम।
तिनकी जिनप्रतिमा जजूं, पूर्ण होय सब काम।।2।।
ऊँ ह्रीं विद्युन्मालीमेरूसंबंधिसौमनसवनदक्षिणदिक्जिनालयजिनबिंबेभ्यः अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।

स्वर्णाचल5 वन सौमनस, पश्चिम दिश जिनगेह।
इन्द्रवंद्य जिनबिंब को, पूजूं धर मन नेह।।3।।
ऊँ ह्रीं विद्युन्मालीमेरूसंबंधिसौमनसवनउत्तरदिक्जिनालयजिनबिंबेभ्यः अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।

विद्युन्माली मेरू में, वन सौमनस अनूप।
उत्तरदिश जिनवेश्म को, जजत मिले निजरूप।।4।।
ऊँ ह्रीं विद्युन्मालीमेरूसंबंधिसौमनसवनउत्तरदिक्जिनालयजिनबिंबेभ्यः अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।

--------------------------- 1. मेरू।
2. वन।
3. मेरू।
5. मेरू।
---------------------------
--मोतीदाम छंद--
सुराचल पंचम में अभिराम, वनी पांडुक अतिरम्य ललाम।
जिनालय पूरबदिश में जान, जजूं कर जोड़ करो शिवथान।।1।।
ऊँ ह्रीं विद्युन्मालीमेरूसंबंधिपांडुकवनपूर्वदिक्जिनालयजिनबिंबेभ्यः अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।

सुराद्री1 विद्युन्माली नाम, सरस वन पांडुक मुनि विश्राम।
जिनालय दक्षिणदिश में सार, जजूं कर जोड़ करो भव पार।।2।।
ऊँ ह्रीं विद्युन्मालीमेरूसंबंधिपांडुकवनदक्षिणदिक्जिनालयजिनबिंबेभ्यः अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कनकपर्वत2 पंच शिवकार, सुवन पांडुक में सुर परिवार।
जिनालय पश्चिमदिश रत्नाभ, जजूं जिननाथ करो शिवलाभ।।3।।
ऊँ ह्रीं विद्युन्मालीमेरूसंबंधिपांडुकवनपश्चिमदिक्जिनालयजिनबिंबेभ्यः अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।

--पूर्णाघ्र्य-दोहा--
विद्युन्माली मेरू में सोलह जिनवर धाम।
पूरण अघ्र्य संजोय के, जजूं लहूं शिवधाम।।1।।
ऊँ ह्रीं विद्युन्मालीमेरूसंबंधिषोडशजिनालयेभ्यः पूर्णाघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।

सत्रह सौ अठबीस हैं, जिनवर बिंब महान।
पूरण अर्घ चढ़ाय के, नमूं नमूं गुण खान।।2।।
ऊँ ह्रीं विद्युन्मालीमेरूसंबंधिषोडशजिनालयमध्यविराजमानएकसहस्रसप्त-शतअष्टाविंशतिजिनप्रतिमाभ्यः पूर्णाघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।

पांडुक वन के विदिक् में, पांडुशिलादि प्रसिद्ध।
नमूं नमूं नित भाव से, लहूं आत्म सुख सिद्ध।।3।।
ऊँ ह्रीं विद्युन्मालीमेरूविदिक्पांडुकादिशिलाभ्यः अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलिः।

जाप्य- ऊँ ह्रीं पंचमेरूसम्बन्धिअशीतिजिनालयजिनबिम्बेभ्यो नमः।
(लवंग यापुष्प से 9 बार, 27 बार या 108 बार करें)

---------- 1. मेरू
2. मेरू।
----------  
जयमाला

--शंभु छंद--

जय जय विद्युन्माली मेरू, जय जय सुवरनमय जिनगेहा।
जय जय मृत्युंजयि जिनप्रतिमा, जय जय सुर पूजें धर नेहा।।
जय जय कृषि गगन गमनचारी, श्रद्धा से वंदन करते हैं।
जय जय मुनि समरस आस्वादी स्वात्मा का चिंतन करते हैं।।1।।

मैं शुद्ध बुद्ध अविरूद्ध एक, चित्ंपंड अखंड अरूपी हूं।
स्वाभाविक दर्शन ज्ञान वीर्य, सुखरूप अचिन्त्य स्वरूपी हूं।।
मैं हूं अनंत गुण रत्नराशि मैं परम ज्योतिमय परमात्मा।
मैं सकल विमल औ अकल अमल हूं परमानन्दमयी आत्मा।।2।।

यद्यपि व्यवहारनयापेक्षा में दीन दुखी संसारी हूं।
इन कमो्र। का कर्ता भोक्ता नाना प्रकार तनुधारी हूं।।
भव पंच परावर्तन कर कर चहुंगति में घूमा करता हूं।
बस जन्म मरा के चक्कर में निशदिन ही झूमा करता हूं।।3।।

फिर भी निश्चयनय से मैं ही नित शुद्ध परमात्मा हूं।
रस गंध वर्ण स्पर्श रहित चिन्मूरति चैतन्यात्मा हूं।
ये राग रू द्वेष विभाव भाव सब कर्मोदय से आते हैं।
जब कर्म बंध सम्बंध नही तब कैसे ये रह पाते हैं।।4।।
निश्चय व्यवहार उभयनय से मैं तत्वों का ज्ञाता होऊं।
फिर नय का आश्रय छोड़ सभी इस निर्विकल्प में रत होऊं।।
मैं ध्याता हूं तुय ध्येय ध्यान फल आदिक भेद समाप्त करूं।
बस एकाकी एकत्व लिये निज में ही निज को प्राप्त करूं।।5।।

प्रभु ऐसी स्थित आने तक तुम चरण कमल का ध्यान करूं।
पूणैंक ’ज्ञानमति’ पाने तक पूजूं वंदू गुणगान करूं।।
हे नाथ! तुम्हारी भक्ति का मुझको फल केवल यही मिले।
बस पास तुम्हारे आ जाऊं ऐसा मेरा सौभग्य खिले।।6।।

--दोहा--
पश्चिम पुष्कर द्वीप में, विद्युन्माली मेरू।
पूजत ही निज सुख मिले, मिटे जगत का फेर।।7।।
ऊँ ह्रीं विद्युन्मालीमेरूसम्बन्धिषोडशजिनालयजिनबिम्बेभ्यो जयमाला पूर्णाघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलिः।

--गीता छंद--

जो भव्यजन श्री पंचमेरू, व्रत करें नित चाव से।
फिर व्रतोद्योतन हित महा, पूजा करें बहुभाव से।।
वे पुण्यमय तीर्थेश हो, अभिषेक सुरगिरि पर लहें।
त्रय ’’ज्ञानमति’’ चउज्ञान धर फिर अंत में केवल लहें।।
।।इत्याशीर्वादः।।