jain-img41

आचार्य कुन्दकुन्द के प्रसिद्ध परमागम प्रवचनसार की तात्पर्यवृत्ति नामक संस्कृत टीका (79वी गाथा) में तक की परिभाषा आचार्य जयसेन ने इसप्रकार दी है - ’’समस्तरागादिपर भावेच्छात्यागेन स्वस्वरूपे प्रतपनं विजयनं तपः।

समस्त रागादि परभावों की इच्छा के त्याग द्वारा स्वस्वरूप में प्रतपन करना - विजयन करना तप है। तात्पर्य यह हैकि समस्त रागादि भावों के त्यागपूर्वक आत्मस्वरूप में - अपने में लीन होना अर्थात् आत्मलीनता द्वारा विकारों पर विजय प्राप्त करना तप है।’’

इसी प्रकार का भाव प्रवचनसार की तत्वदीपिका टीका में आचार्य अमृतचन्द्र ने भी व्यक्त किया है।1 ’धवल’ में इच्दा निरोध को तप कहा है2

इसप्रकार हम देखते हैं कि नास्ति से इच्छाओं का अभाव और अस्ति से आत्मस्वरूप में लीनता ही तप है।

तप के साथ लगा ’उत्तम’ शब्द सम्यग्दर्शन की सत्ता का सूचक है। सम्यग्दर्शन के बिना किया गया समस्त तप निरर्थक है। कहा भी है -

’’सम्मत्तविरहियाणं सुट्ठु वि उग्गं तवं चरंताणं।
ण लहंति बोहिलाएं अवि वाससहस्सकोडीहिं।।5।।3

यदि कोई जीव सम्यक्त्व के बिना करोड़ों वर्षों तक उग तप भी करे तो भी वह बोधिलाभ प्राप्त नहीं कर सकता।

इसप्रकार का भाव पंडित दौलतरामजी ने भी व्यक्त किया है -

’’कोटि जन्म तप तपैं, ज्ञान बिन कर्म झरैं जे।
ज्ञानी के छिन माँहि, त्रिगुप्ति तैं सहज टरैं ते।।1’’

देह और आत्मा का भेद नहीं जानने वाला अज्ञानी मिथ्यादृष्टि यदि घोर तपश्चरण भी करे तब भी मुक्ति को प्राप्त नहीं कर सकता।

समाधिशतक में आचार्य पूज्यपन लिखते हैं -

यो न वेत्ति परं देहादेवमात्मानमव्ययम्।
लभते स न निर्वाणं तप्त्वापि परमं तपः।।33।।

जो अविनाशी आत्मा को शरीर से भिन्न नहीं जानता, वह घोर तपश्चरण करनके भी मोक्ष को प्राप्त नहीं करता।’’

उत्तमतप सम्यकचारित्र का भेद है और सम्यक्चारित्र सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञान बिना नहीं होता। परमार्थ के बिना अर्थात शुद्धात्मकतत्वरूपी परम अर्थ की प्राप्ति बिना किया गया समस्त तप बालतप है।

आचार्य कुन्दकुन्द समयसार में लिखते हैं -

’’परमठ्ठम्हि दु अठिदो जो कुणदि तवं वदं च धारेदि।
तं सव्वं बालतवं बालवदं बेंति सव्वण्हू।।152।।

परमार्थ में अस्थित अर्थात् आत्मानुभूति से रहित जो जीव तप करता है और व्रत धारण करता है, उसके उन सब व्रतों और तप को सर्वज्ञ भगवान बालव्रत और बालतप कहते हैं।’’

जिनागम में उत्तमतप की महिमा पद-पद पर गाई गई है।

भगवती आराधना में तो यहाँ तक लिखा है -

’’तं णत्थि जं ण लब्भइ तवसा सम्मं कएण पुरिसस्स।
अग्गीव तणं जलिओ कम्मतणं डहदि य तवग्गी।।1472।।
सम्मं कदस्स अपरिस्सवस्स ण फलं तवसस बण्णेदुं।
कोई अत्थि समत्थे जस्स वि जिब्भा सयसहस्सं।।1473।।

जगत में ऐसा कोई पदार्थ नहीं जो निर्दोष तप से पुरूष को प्राप्त न हो सके अर्थात तप से सर्व उत्तम पदार्थो। की प्राप्ति होती है। जिसप्रकार प्रज्वलित अग्नि तृण को जलाती है; उसीप्रकार तपरूपी अग्नि कर्मरूप तृण को जलाती है। उत्तर प्रकार से किया गया कर्मस्त्रव रहित तपक ा फल वर्णन करने में हजार जिह्वा वाला भी समर्थ नहीं हो सकता।

तप की महिमा गाते हुए महाकवि द्यानतरायजी लिखते हैं -

’’तप चाहैं सुरराय, करम शिखर को बज्र है।

द्वादशा विध सुखदाय, क्यों न करैं निज सकति समं
उत्तम तप सब मांहि बखाना, करम शैल को बज्र समाना।1’’
jain-img42

उक्त पंक्तियों में दो-दा बार तप के लिए कर्मरूपी पर्वतों को भेदने वाला बताया गया हैं यहभी कहा गय है कि जिस तप को देवराज इन्द्र भी चाहते हैं, जो वास्तविक सुख प्रदान करने वाला है; उसे दुर्लभ मनुष्यभव प्राप्त कर हम अपनी शक्ति अनुसार क्यों न करें? अर्थात् हमें अपनी शक्ति-अनुसार तप अवश्य करना चाहिए।

जिस तप के लिए देवराज तरसें और जो तप कर्म-शिखर को बज्र-समान हो वह तप कैसा होता होगा - यह बात मननीय है। उसे मात्र दो-चार दिन भूखे रहने या अन्य प्रकार से किये बाह्य कायक्लेशादि तक सीमित नहीं किया जा सकता।

उत्तमतप अपने स्वरूप और सीमाओं की सम्यक् जानकारी के लिए गंभीरतम अध्ययन, मनन और चिन्तन की अपेक्षा रखता है।

यदि भोजनादि नहीं करने का नाम ही तप होता तो फिर देवता उसके लिए तरसते क्यों? भोजनादि का त्याग तो वे आसानी से कर सकते हैं। उनके भोजनादि का विकल्प भी हजारों वर्ष तक नहीं होता। यह बात संयम की चर्चा करते समय विस्तार से स्पष्ट की जा चुकी है।

तपदो प्रकर का मना गया है - (1) बहिरंग और (2) अंतरंग।

बहिरंग तप भी छह प्रकार का होता है1 -

1. अनशन

2. अवमौदर्य

3. वृत्तिपरिसंख्यान

4. रसपरित्याग

5. विविक्तशय्यासन और

6. कालक्लेश।

इस प्रकार अंतरंग् तप भी छह प्रकार का होता है2 -

1. प्रायश्चित

2. विनय

3. वैयावृत्य

4. स्वाध्याय

5. व्युत्सर्ग

6. ध्यान

इसप्रकार कुल तप बारह प्रकार के होते हैं।

उक्त समस्त तपों में - चाहे वे बाह्य तप हों या अंतरंग, एक शुद्धोपयोगरूप वीतरागभाव की ही प्रधानता है। इच्छाओं के निरोधरूप शुद्धोपयोगरूपी वीतरागभाव ही सच्चा तप है। प्रत्येक तप में वीतराग भाव की वृद्धि होनी ही चाहिए - तभी वह तप है, अन्यथा नहीं।

इस संदर्भ में आचार्यकल्प पंडित टोडरमालजी के विचार द्रष्टव्य हैं -

’’अनशनादि को तथा प्रायश्चित्तादि करके वीतरागभावरूप सत्यतप का पोषण किया जाता है; इसलिए उपचार से अनशनादि को तथा प्रायश्चित्तादि को तप कहा है। कोई वीतरागभावरूप तप को न जाने और इन्हीं को तप जानकर संग्रह करे तो संसार ही में भ्रमण करेगा। बहुत क्या, इतना समझ लेना कि निश्चयधर्म तो वीतरागभाव है, अन्य नाना विशेष बाह्यसाधन की अपेक्षा उपचार से किए हैं, उनको व्यवहारमात्र धर्मसंज्ञा जानना ।3’’

ज्ञानीजनों को उपवासादि की इच्छा नहीं है, एक शुद्धोपयोग की इच्छा है; उपवासादि करने से शुद्धोपयोग बढ़ता है, इसलिए उपवासादि करते हैं। तथा यदि उपवासादि से शरीर या परिणामेां की शिथिलता के कारण शुद्धोपयोग को शिथिल होता जाने तो वहाँ आहारादिक ग्रहण करते हैं ............

1. प्रश्न - यदि ऐसा है तो अनशनादिक को तपसंज्ञा कैसे हुई?

समाधान - उन्हें बहा्य तप कहा है। सो बह्य का अर्थ यह है कि बाहर से औरों को दिखाई दे कि यह तस्वी है, परंतु आप तो फल जैसे अन्तरंग परिणाम होंगे, वैसा ही पायेगा; क्योंकि परिणामशून्य शरीर की क्रिया फलदाता नहीं है। ..........

बाह्य साधन होने से अंतरंग त की वृद्धि होती है, इसलिए उपचार से इनको तप कहा है; परंतु यदि बाह्य त पतो करे और अंतरंग तप न हो तो उपचार से भी उसे तपसंज्ञा नहीं है।1

jain-img43

तथा अंतरंग तपों में प्रायश्चित, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, त्याग और ध्यानरूप जो क्रियाएं; उनमें बाह्य प्रवर्तन उसे तो बाह्य तपवत् ही जानना। जैसे अनशनादि बाह्य क्रिया हैं, उसीप्रकार यह भी बाह्य क्रिया हैं; इसलिए प्रायश्चित्तादि बाह्य साधन अंतरंग तप नहीं है। ऐसा बाह्य प्रवर्तन होने पर जो अंतरंग परिणामों की शुद्धता हो, उसका नाम अंतरंग तप जानना।2’’

य़द्यपि अंतरंग तप ही वास्तविक तप है, बहिरंग तप को उपचार से तपसंज्ञा है; तथापि जगतजनों को बाह्य करने वाला ही तपस्वी दिखाई देता है।

एक घर के दो सदस्यों में से एक ने निर्जल उपवास किया; पर दिनभर गृहस्थी के कार्यों में ही उलझा रहा। दूसरे ने यद्यपि दिन में भोजन दो बार किया; दिनभर आध्यात्मिक अध्ययन, मनन, चिन्तन, लेखन, पठन-पाठन करता रहा।

जगतजन उपवास करने वालो को ही तपस्वी मानेंगे, पठन-पाठन करने वाले को नहीं। जितना कोमल व्यवहार उपवास वाले से किया जायेगा, उतना पठन-पाठन वाले से नहीं। यदि उसने अधिक गड़बड़ की तो डाँट भी पड़ेगी। कहा जायेगा कि तुमने तो दो-दो बार खाया है, उसका तो उपवास था। हर बात में उपवास वाले को प्राथमिकता प्राप्त होगी।

ऐसा क्यों होता है?

इसलिए कि जगतजन उसे तपस्वी मानते हैं, जबकि उसने कुछ नहीं किया। उपवास किया अर्थात् भोजन नीं किया, पानी नहीं पिया। यह सब तो नहीं किय हुआ। किया क्या? कुछ नहीं। जबकि अध्ययन-मनन-चिन्तन, पठन-पाठन करने वाले ने यह सब कया है - बाह्य ही सही; पर ये सब स्वाध्याय के ही रूप हैं और स्वाध्याय भी एक तप है। पर उसे यह भोला जगत तपस्वी मानने को तैयार नहीं, क्योंकि उसे यह कुछ किया-सा ही नहीं लगता।

उपवास तो कभी-कभी किया जाता है, पर स्वाधय और ध्यान प्रतिदिन किये जाते हैं। स्वाध्याय और ध्यान अंतरंग तप हैं और तपों में सर्वश्रेष्ठ हैं। फिरभी यह जगत स्वाध्याय और ध्यान करने वालों की अपेक्षा उपवासादि कायक्लेश करने वालों को ही महत्व देता हैं

यह दुनियाँ ऐसा भेद मुनिराजों में भी डालती है। दिन-रात आत्मचिन्तन में रत ज्ञानी-ध्यानी मुनिराजों की अपेक्षा जगत-प्रपंचों में उलझे किन्तु दश-दश दिन तक उपवास के नाम पर लंघन करने वालों को बड़ा तपस्वी मानती है, उनके सामने ज्यादा झुकती है; जबकि आचार्य समन्तभद्र ने तपस्वी की परिभाषा इसप्रकार दी है -

’’विषयाशावशातीतो निरारंभोऽपरिग्रहः।
ज्ञानध्यानतपोरक्तस्तपस्वी स प्रशस्यते।।1

पंचेन्द्रियों के विषयों की आशा, आरम्भ और परिग्रह से रहित; ज्ञान; ध्यान और तप में लीन तपस्वी ही प्रशंसनीय है।’’

प्रश्न- उपवास के नाम पर लंघन की बात क्यों करते हो?

उत्तर - इसलिये कि ये लोग उपवास काभी तो सही स्वरूप नहीं समझते। मात्र भोजन के त्याग कोउपवास मानते हैं, जबकि उपवास तो आत्मस्वरूप के समीप ठहरने का नाम है। नास्ति से भी विचार करें तो पंचेन्द्रियों के विषय, कषाय और आहार के त्याग को उपवास कहा गया है, शेष तो सब लंघन है।

’’कषायविषयाहारो त्यागो यत्र विधीयते।
उपवासः स विज्ञेयः शेषं लंघनकं विदुः।।2’’

इसप्रकार हम देखते हैं कि कषाय, विषय और आहार के त्यागपूर्वक आत्मस्वरूप के समीप ठहरना - ज्ञान-ध्यान में लीन रहना ही वास्तविक उपवास है। किन्तु हमारी स्थिति क्या है? उवपस के दिन हमारी कषायें कितनी कम होती है? उपवास के दिन तो ऐसा लगता है जैसे हमारी कषायें चैगुनी हो गईं।

jain-img44

एक बात यह भी ध्यान देने योग्य है कि उक्त बारह तपों में प्रथम की अपेक्षा दूसरा, दूसरे की अपेक्षा तीसरा, इसीप्रकार अन्त तक उत्तरोत्तरतप अधिक उत्कृष्ट और महत्वपूर्ण हैं। अनशन पहला तप है और ध्यान लगातार अन्तर्मुहूत्र्त करे तो निश्चित रूप से केवलज्ञान की प्राप्ति होती है, किंतु उपवास वर्ष भर भी करे तो केवलज्ञान की गारंटी नहीं यह नकली उपवास की बात नहीं, असली उपवास की बात है। प्रथम तीर्थंकर मुनिराज ऋषभदेव दीक्षा लेते ही एक वर्ष, एक माह और आठ दिन तक निराहार रहे, फिर भी हजार वर्ष तक केवलज्ञान नहीं हुआ। भरत चक्रवर्ती को दीक्षा लेने के बाद आत्मध्यान के बल से एक अन्तर्मुहूत्र्त में ही केवलज्ञान हो गया।

अनशन से अवमौदर्य, अवमौदर्य से वृत्तिपरिसंख्यान, वृत्तिपरिसंख्यान से रसपरित्याग अधिक महत्वपूर्ण है। इस बात को स्पष्ट करने के लिए इनका सामान्य स्वरूप जानना आवश्यक है।

अनशन में भोजन का पूर्णतः त्याग होता है, पर अवमौदर्य में एक बार भोजन किया जाता है; इसकारण इसे एकाशन भी कहते है। यद्यपि इसमें एक बार भोजन किया जाता है, तथापि भर पेट नीं; इसकारण इसे ऊनोदर भी कहते हैं। किन्तु आज यह ऊनोदर न रहकर दूनोदर हो गया हे; क्योंकि लोग एकासन में एक समय का नहीं, दोनों समय का गरिष्ठ भोजन कर लेते हैं।

भोजन को जाते समय अनेक प्रकार की अटपटी प्रतिज्ञाएं ले लेना, उसकी पूर्ति पर ही भोजन करना; अन्यथाा उपवास करना वृत्तिपरिसंख्यान है। षट्रसों में कोई एक, दो या छहों ही रसों का त्याग करना, नीरस लेना रसपरित्याग है।

उपर्युक्त चारों ही तप भोजन या भोजन-त्याग से सम्बंधित है। इनमें इच्दाओं का निरोध एवं शारीरिक आवश्यकताओं के बीच कितना संतुलित नियमन है - यह द्रष्टव्य है।

इनमें एक वैज्ञानिक क्रमिक विकास है। यदि चल सके तो भोजन करो ही नहीं (अनशन); न चले तो एक बाद दिन में शान्ति से अल्पाहार लो (अवमौदर्य); वह भी अनेक नियमों के बीच में बंध कर, अनर्गल नहीं (वृत्तिपरिसंख्यान); और जहाँ तक बन सके नीरस हो; क्योंकि सरस आहार गृद्धता बढ़ता है, पर शारीरिक आवश्यकता की पूर्ति करने वाला होना चाहिए, अतः सभी रसों का सदा त्याग नहीं, किंतु बदल-बदल कर विभिन्न रसों का विभिन्न समयों पर त्याग हो, जिससे शरीर की आवश्यकता-पूर्ति भी होती रहे और जिह्वा की लोलुपता पर भी प्रतिबन्ध रहे (रसपरित्याग)।

इससे स्पष्ट है कि तप शरीर के सुखाने का नाम नहीं, इच्छाओं के निरोध का नाम है।

अब विचारणीय प्रश्न यह है कि अनशन से ऊनोदर अधिक महत्वपूर्ण क्यों है? जबकि अनशन में भोजन कियाही नहीं जाता ओर ऊनोदर में दिन में एक बार भूख से कम खाया जाता है।

इसप्रकार भोजन को जाना ही नहीं अलग बात है, किन्तु जाकर भी अटपटे नियमों के अनुसार भोजन न मिलने पर भोजन नहीं करना अलग बात है। उससे इससे इसमें इच्छा-निरोध अधिक है। तथा सरस भोजन की प्राप्ति होने पर भी नीरस भोजन करना - उससे भी अधिक इच्छा निरोध की कसौटी है।

अनशन में इच्छाओं की अपेक्षा पेट का निरोध अधिक है। ऊनोदरादि में क्रमशः पेट के निरोध की अपेक्षा इच्छाओं का निरोध अधिक है। अतः अनशनादि की अपेक्षा आगे-आगे के तप अधिक महत्वपूर्ण हैं। हमने पेट के काटने को तप मान लिया है, जबकि आचार्यों ने इच्छाओं के काटने को तप कहा है।

उक्त तपों में शारीरिक स्वास्थ्य क ध्यान रखते हुए रसनेन्द्रिय पर पूरा-पूरा अनुशासन रखा गया है। उन्होंने जीवन भर किसी रस विशेष का त्याग करने की अपेक्षा बदल-बदल कर रसों के त्याग पर बल दिया। रविवार को नमक नहीं खाना, बुधवार को घी नहीं खाना आदि रसियों की कल्पना में यही भावना काम करती है। एक रस छह दिन खाने ओर एक दिन नहीं खाने से शरीर के लिए आवश्यक तत्वों की कमी भीनहीं होगी और स्वाद की प्रमुखता भी समाप्त हो जावेगी।

कोई व्यक्ति यदि जीवन भर को नमक या घी छोड़ देता है तो प्रारंभ के कुछ दिनों तक तो उसे भोजन बेस्वाद लगेगा, परंतु बाद में उसी भोजन में स्वाद आने लगेगा; शरीर में उस तत्व की मकी हो जाने से स्वास्थ्य में गड़बड़ी हो सकती है। किंतु छह दिन खाने के बाद यदि एक दिन घी या नमक न भी खावे तो शारीरिक क्षति बिल्कुल न होगी और भोजन बेस्वाद हो जावेगा; अतः रसना पर अंकुश रहेगा।

एक मुनिराज ने एक माह का उपवास किया। फिर आहार को निकले। निरन्तराय आहार मिल जाने पर भी एक ग्रास भोजन लेकर वापिस चले गये। फिर एक माह का उपवास कर लिया। यह ऊनोदर का उत्कृष्ट उदाहरण है।

अज्ञानी कहता है कि जब दो महा का ही उपवास करना था तो फिर एक ग्रास भोजन करके भोजन का नाम ही क्यों किया? नहीं करते तो दो माह का रिकार्ड बन जाता।

अज्ञानी सादा रिकार्ड बनाने के जोड़-तोड़ में ही रहता है। धर्म के लिए-तप के लिए रिकार्ड की आवश्यकता नहीं। रिकार्ड से तो मान का पोषण होता हैं। मान का अभिलाषी रिकार्ड बनाने के चक्कर में रहता है। धर्मात्मा को रिकार्ड की क्या आवश्यकता है? मुनिराज ने भोजन को जाकर उपवास नहीं तोड़ा; उससे हो जाने वाले मान को तोडा है। एक माह बाद भोजन को इसलिए गये कि वे जानना चाहते थे कि जिस इच्दा कोम मारने के लिए उन्होंने उपवास किया है, वह मरी य नहीं, कमजोरी हुई या नहीं? निरन्तराय आहार मिलने पर भी एक ग्रास लेकर छोड़ आये, जिससे पता लगा कि इच्छा का बहुत कुछ निरोध हो गया हैं

निर्दोष एकान्त स्थान में प्रमादरहित सोने-बैठने की वृत्ति विविक्त-शय्यासन तथा आत्मसाधना एवं आत्माराधना में होने वाले शारीरिक कष्टों की परवाह नहीं करना कायक्लेश तप है। इनमें ध्यान रखने की बात यह है कि काय केा क्लेश देना तप नहीं है, वरन् कायक्लेश के कारण आत्माराधना में शिथिल नहीं होना मुख्य बात है।

इच्दा का निरोध होकर वीतरागभाव की वृद्धि होना तप का मूल प्रयोजन है। कोई भी तप जबतक उक्त प्रयोजन की सिद्धि करता है, तबतक ही वह तप है।

यह तो सामान्यरूप से बाह्य तपों की संक्षिप्त चचा्र हुईं इनमें प्रत्येक पृथक्-पृथक विस्तृत विवेचन की अपेक्षा रखता है, किंतु इसके लिए यहाँ अवकाश नहीं है। अब थोड़े रूप में कतिपय अंतरंग तपों पर विचार अपेक्षित है। जिन अंतरंग तपों के संबंध में बहुत भ्रान्त धारणएं प्रचलित हैं, उनमें विनयतप भी एक है।

जब भी विनयतप की चर्चा चलती है तब-तब वर्तमान मे प्रचलित अनुशासनहीनता को कोसा जाने लगता है। नवीन पीढ़ी के विरूद्ध शिकायतें की जाती है। उन्हें उपदेश दिया जाने लगता है कि आज के बच्चों में विनय तो रही ही नहीं। ये लोग न अध्यापक के पैर छुएंगे, न माता-पिता के, आदि न जाने क्या-क्या कहा जाता है?

मैं यह नहीं कहता कि माता-पिता की विनय नहीं करना चाहिए। माता-पिता आदि गुरूजनों की यथायोग्य विनय तो की जानी चाहिए। परमेरा कहना तो यह है कि माता-पिता की विनय, विनयतप नहीं है; क्येंकि तप मुनियों का होता है और मुनि बनने के पहले ही माता-पिता का त्याग हो जाता है।

माता-पिताकी विनय लौकिक विनय है और विनयतप में अलौकिक अर्थात् धार्मिक-आध्यात्मिक विनय की बात आती है।

jain-img45

विनयतप चाहे जहाँ माथा टेक देने वाले तथाकथित दीन गृहस्थों के नहीं, पंचपरमेष्ठी के अतिरिक्त कहीं भी नहीं नमने वाले मुनिराजों के होता है।

बिना विचारे जहाँ-तहाँ नमने का नाम विनयतप नहीं, वैनयिक मिथ्यात्व है। विनय अपने-आप में अत्यंत महान आत्मिक दशा हे। सही जगह होने पर जहां वह तप का रूप धारण कर लेती है, वहीं गलत जगह की गई विनय अनन्त संसार का कारण बनती है।

विनय सबसे बडा धर्म, सबसे बड़ा पुण्य एवं सबसे बड़ा पाप भी है। विनय तप के रूप में सबसे बड़ा धर्म, सोलहकरण भावनाओं में विनयसम्पन्नता के रूप में तीर्थंकर प्रकृति के बंध का कारण होने से सबसे बड़ा पुण्य और विनयमिथ्यात्व के रूप में अनन्त संसार का कारण होने से सबसे बड़ा पाप है।

विनय के प्रयोग में अत्यन्त सावधानी आवश्यक है। कहीं ऐसा न हो कि आप जिसे विनयतप समझकर कर रहे हों, वह विनयमिथ्यात्व हो। इसका ध्यान रखिए कि कहीं आप विनयतप या विनयसम्पन्नता भावना के नाम पर विनयमिथ्यात्व का पोषण कर अनन्तसंसार तो नहीं बढ़ा रहे हैं?

विनय का यदि सही स्थान पर प्रयोग हुआ तो तप होने से कर्म को काटेगी, किन्तु गलत स्थान पर प्रयुक्त विनय मिथ्यात्व होने से धर्म ही काट देती है। यह एक ऐसी तलवार है जो चलाई तो अपने माथे पर जाती है और काटती है शत्रुओं के माथों को पर सही प्रयोग हुआ तो। यदि गलत प्रयोग हुआ तो अपना माथा भी काट सकती है। अतः इसका प्रयोग अत्यनत सावधानी से किया जाना चाहिए।

अपना माथा कोई सड़ा नारियल नहीं, जो चाहे जहाँ फोड़ दिया जाय। कहाँ झुकना और कहां नहीं झुकना - इसका भी जिसको विवके नहीं है, वह सही जगह झुककर भी लाभ नहीं उठा सकता; क्येांकि विवेकपूर्वक किया गय अचारण ही सफल होता है। आचार्य समन्तभद्र ने परीक्षा किए बिना आप्त को भी नमस्कार नहीं किया।

जिसने अपने माथे की कीमत नहीं की, उसकी जगत में कौन कीमत करेगा? नमना, झूठी प्रशंसा करना आज व्यवहार बन गया है। मैं दूसरों की विनय या प्रशंसा करूंगा तो दूसरे मेरी विनय व प्रशंसा करेंगे - इस लोभ से नमने वालेां एवं प्रशंसा करने वालों की क्या कीमत है? अरे भाई! जगत से क्या प्रशंसा चाहना? भगवान की वाणी में जिसके लिए ’भव्य’ शब्द भी आ गया, वह धन्य है, इससे बड़ी प्रशंसा और क्या होगी?

’क्या कहा’ - इसकी कीमत नहीं; ’किसने कहा’ - इसकी कीमत है। भगवान ने यदि ’भव्य’ कहा तो इससे महान अभिनन्दन ओर क्या होगा? भगवान की वाणी में ’भव्य’ आया तो मोक्ष प्राप्त होने की गारंटी हो गई। पर इस मूर्ख जगत ने यदि ’भगवान’ भी कह दिया तो उसकी क्या कीमत? स्वभाव से ता सभी भगवान हैं, पर जो पर्याय से भी वर्तमान में हमें भगवान कहता है, उसने हमें भगवान नहीं बनाया, वरन् अपनी मूर्खता व्यक्त की है।

विनय बहुत ऊँची चीज है, उसे इतने नीचे स्तर पर नहीं लाना चाहिए। भाई साहब! विनय तो वह तप है जिससे निर्जरा और मोक्ष होता है, वह क्या चापलूसी से हो सकता है? नहीं, कदापि नहीं।

यदि मात्र चरणों में झुकने और नमस्ते करने का नाम विनयतप हेता तो फिर देवता इसके लिए क्यों तरसते, उन्हें किसी के सामने नमने में क्या दिक्कत थी? फिर शास्त्रकार यह क्यों कहते हैं क उनके तप नहीं है?

माँ-बा पके सामने झुकने का नाम तो विनयतप है ही नहीं, सच्चे देव-शास्त्र-गुरू के सामने झुकने का नाम भी निश्चय से विनयतप नहीं है - उपचारविनय है।

विनयतप चार प्रकार के हाते हैं -

1. ज्ञानविनय

2. दर्शनविनय

3. चारित्रविनय और

4. उपचारविनय

उपचारविनय में कुछ लोग माता‘-पिता आदि लौकिकजनों की विनय को लेते हैं, पर यह ठीक नहीं है।

ज्ञानविनय निश्चयविनय है और ज्ञानी की विनय उपचारविनय है, दर्शननिय निश्चयविनय है और सम्यग्दृष्टि की विनय उपचारविनय है, चारित्र की विनय निश्चयविनय है और चारित्रवतों की विनय उपचारविनय है। इसप्रकार ज्ञान-दर्शन-चारित्र की विनय निश्चयविनय और इनके धारक देव-गुरूओं की विनय उपचारविनय है।

विनयतप तपधर्म का भेद है, अतः इसका उपचार भी धर्मात्माओं में ही किया जा सकता है; लैकिकजनों में नहीं।

किसी के चरणें में मात्र माथा टेक देने का नाम विनयतप नहीं है। बाहर से तो मायाचारी जितना नमता है, हो सकता है असली विनयवान उतना नमता दिखाई न भी दे। यहाँ बाह्य विनय की बात नहीं, अंतरंग बहुमान की बात है; विनय अंतरंग तप है। बाहर से नमने वालों के फोटू खींची जा सकती है, अंतरंग वालों को नहीं। ज्ञान-दर्शन-चारित्र के प्रति अन्तर में अनन्त बहुमान के भाव और उनकी पूर्णता को प्राप्त करने के भाव का नाम विनयतप है।

jain-img46

वैयावृत्यतप के सम्बंध में भी जगत में कम भ्रान्त धारणाएं नहीं है। तपस्वी साधुओं की सेवा करने, पैर दबाने आदि को भी वैयावृत्य समझा जाता है।

यहाँ एक प्रश्न सम्भव है कि वैयावृति करना तप है या कराना अर्थात् दूसरों के पैर दाबना तप है या दूसरों से पैर दबवाना तप है?

यदि पैर दाबना तप है तो फिर पैर दाबने वाले गृहस्थ के तप हुआ, दबवाने वाले मुनिराज के नहीं; जबकि तपस्वी मुनिराज को कहा जाता है। ये बारह तप हैं भी मुख्यतः मुनरिाजों के ही।

यदि आप यह कहें कि पैर दबवान तप है तो फिर ऐसा तप किसे स्वीकार न होगा? दूसरे हमारी सेवा करें और सेवा करवाने से हम तपस्वी हो जावें, इससे अच्छा और क्या होगा?

बिना विचारेहम सब पैर दबाते आ रहे हैं ओर मानते आ रहे हैं कि हम वैयावृत्ति कर रहे है, इसका फल हमें आवश्य मिलेगा। साथ ही यह भी मानते आ रहे हैं कि वैयावृत्यतप मुनियों के होता है।

वैयावृत्ति का अर्थ सेवा होता है - यह सही है। पर सेवा का अर्थ पैर दबाना हमने लगा लिय है। वैयावृत्ति में पैर भी दबाये जाते हैं, पर पैर दबाना ही मात्र वैयावृत्ति नहीं है। सेवा स्व और पर दोनों की होती है। वास्तविक सेवातो स्व और पर को आत्महित में लगाना है। आत्महित एकमात्र शुद्धोपयोगरूप दशा में है। शुद्धोपयोग रूप रहने के लिए निरंतन प्रयत्नशील रहना ही वास्तविक वैयावृत्ति है।

यदि रोग आदि के कारण अपना या दूसरे साथी मुनिराज का चित्त स्थिरता को प्राप्त न हो पा रहा हो तो ’पैर दबाना’ आदि के द्वारा उनके चित्त को स्थिरता प्रदान करना भी वैयावृत्ति है; किंतु बिना किसी कारण आराम से पैर दबाते-दबवाते रहन कभी वैयावृत्ति नहीं हो सकती। और हो भी तो तप नहीं; अन्तरंग त पतो कदापि नहीं।

यदि कोई मुनिराज भयंकर पीड़ा से कराह रहे हैं, उनका चित्त स्थिर नहीं हो पा रहा है;ऐसी स्थिति में उन्हें कोरा उपदेश पर उनके परिणामों में स्थिरता आना संभव नहीं है। पर यदि उनकी सेवा करनते हुए उन्हें सम्बोधित कियाजाय तो स्थिरता शीघ्र प्राप्त हो सकी है। एकमात्र यही कारण है जिससे शारीरिक सेवा को वैयावृत्यतप में स्थान प्राप्त हैं

विनय और वैयावृत्य तप के बारे में विचार करते समय हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि ये अंतरंग तप है, बाह्यप्रवृत्तिमात्र से इनको जोड़ना ठीक नहीं।

स्वाध्याय भी अंतरंग तप है। स्वाध्याय को परमतप कहा गया है (स्वाध्यायः परमं तपः)। पर आज तो हमा प्रातः उठकर सबसे पहिले समाचार-पत्रों का स्वाध्याय करने लगे हैं।

यहाँ वहाँ का कुछ भी पढ़ लेना स्वाध्याय नहीं है, आत्महितकारी शास्त्रों का अध्ययन-मनन-चिन्तन भीउपचार से स्वाध्याय है। वास्तविक स्वाध्याय तो आत्मज्ञान का प्राप्त होना ही है। स्व $ अधि $ अय = स्वाध्याय। ’स्व’ माने निज का, ’अधि’ माने ज्ञान और ’अय’ माने प्राप्त होना - इसप्रकार निज का ज्ञान प्राप्त होन ही स्वाध्याय है; पर का ज्ञान तो पराध्याय है।

यद्यपि स्वाध्याय के भेदों में बांचना, पृच्छना आदि आते हैं, तथापि यद्वा-तद्वा कुछभी बाँचना,पूछना स्वाध्याय नहीं है। क्या बाँचना? कैसे बाँचना? क्या पूछना? किससे पूछना? कैसे पूछना? आदि विवेकपूर्वक किये गये बाँचना, पृच्छना आदि ही स्वाध्याय कहे गये हैं।

मंदिर में गये; जो भी शास्त्र हाथ लगा, उसी की - हजाँ से खुल गया - दो चार पंक्तियाँ खड़े-‘खड़े पढ़ ली और स्वाध्याय हो गया, वह भी इसलिए कि महाराज प्रतिज्ञा लिवा गये थे कि प्रतिदिन स्वाध्याय अवश्य करना? यह स्वाध्याय नहीं है।

हमें आध्यात्मिक ग्रन्थों के स्वाध्याय की वैसी रूचि भी कहाँ है, जैसी कि विषय-कषाय और उसके पोषक साहित्य पढ़ने की है। ऐसे बहुत कम लोग होंगे, जिन्होंने किसी आध्यात्मिक, सैद्धान्तिक या दार्शनिक ग्रन्थ का स्वाध्याय आद्योपान्त किया हो। साधारण लोग तो बँधकर स्वाध्याय करते ही नहीं, पर ऐसे विद्वान भी बहुत कम मिलेंगे जो किसी भी महान ग्रन्थ का जमकर अखण्डरूप से स्वाध्याय करते हों। आदिसे अत तक अखण्डरूप से हम सम्भव है? जब हमारी इतनी भी रूचि नहीं कि उसे अखण्डरूप से पढ़ भी सकें तो उसमें प्रतिपादित अखण्ड वस्तु का अखण्ड स्वरूप हमारे ज्ञान और प्रतीति में कैसे आवे?

विषय-कषाय के पोषक उपन्यासादि को हमने कभी अधूरा नहीं छोड़ा होगा, उसे पूरा करके ही दम लेते हैं;उसके पीछे भोजन को भी भूल जाते हैं। क्या आध्यात्मिक साहित्य के अध्ययन में भी कभी भोजन को भूले हैं?

यदि नहीं, तो निश्चित समझिये हमारी रूचि अध्यात्म में उतनी नहीं, जितनी विषय-कषाय में है।

’रूचि-अनुयायी वीर्य’ के नियमानुसार हमारी सम्पूर्ण शक्ति वहीं लगती है, जहाँ रूचि होती है। स्वाध्यायतप के उपचार को भी प्राप्त करने के लिए हमें अध्यात्मिक साहित्य में अनन्य रूचि जागृत करनी होगी।

स्वायातप के पाँच भेद किये गये हैं -

1. बाँचना

2. पृच्छना (पूछना)

3. अनुप्रेक्षा (चिन्तन)

4. आम्नाय (पाठ) और

5. धर्मोपदेश

इनमें स्वाध्याय की प्रक्रिया का क्रमिक विकास लक्षित होता है।

प्रथम, तत्वनिरूपक आध्यात्मिक ग्रन्थों को बाँचना और अपनी बुद्धि से जितना भी मर्म निकाल सकें, पूरी शक्ति से निकालना - ’बाँचना स्वाध्याय’ है।

उसके बाद भी यदि कुछ समझ में न आवे तो समझने के उद्देश्य से किसी विशेष ज्ञानी से विनयपूर्वक पूछना - ’पृच्छना स्वाध्याय’ है।

जो बाँचा है, उस पर तथा पूछने पर ज्ञानी महापुरूष से जो उत्तर प्राप्त हुआ हो, उस पर गंभीरतापूर्वक विचार करना, चिन्तन करना - ’अनुप्रेक्षा स्वाध्याय’ है।

बाँचना, पृच्छना और अनुप्रेक्षा के बाद निर्णीत विषय को स्थिर धारणा के लिए बारम्बार धोखना, पाठ करना - ’आम्नायस्वाध्याय’ है।

jain-img47

बाँचना, पृच्छना, अनुप्रेक्षा और आम्नाय (पाठ) के बाद जब विषय पर पूरा-पूरा अधिकार हो जावे, तब उसका दूसरे जीवों के हितार्थ उपदेश देना ’धर्मोपदेश’ नाम का स्वाध्याय है।

उक्त विवेचन से निश्चित होता है कि मात्र बाँचना ही स्वाध्याय नहीं, आत्महित की दृष्टि से समझने के लिए पूछना भी स्वाध्याय है, चिन्तन और पाठ भी स्वाध्याय है, यहाँ तक कि यशादि के लोभ के बिना स्व-परहित की दृष्टि से किया गया धर्मोपदेश भी स्वाध्यायतप में आता है।

पर इनमें एक क्रम है। आज हम उस क्रम को भूल गये हैं। हम शास्त्रों को बाँचे बिना ही पूछना आरम्भ कर देते हैं। यही कारण है कि हमारे प्रश्न ऊटपटांग होते हैं। जबतक किसी विषय का स्वयं गंभीर अध्ययन नहीं किया जायेगा, तबतक तत्संबंधित गंभीर प्रश्न भी कहाँ से आवेंगे?

बहुत से प्रश्न दूसरों की परीक्षा के लिए भी किये जाते हैं। वे ’पृच्छना स्वाध्याय’ में नहीं आते। जो निरन्तर दूसरों की बुद्धि परखने के लिए ही प्रश्न उछाला करते हैं, उनको लक्ष्य करके महाकवि बनारसीदासजी ने लिखा है -

’’परनारी संग परबुद्धि कौ परखिवौ1’’

अपनी जिज्ञासा शान्त करने के लिए ही विनयपूर्वक प्रश्न किये जाने चाहिए। उद्दण्डतापूर्वक वक्ता का गला पकड़ने की कोशिश करना स्वाध्यातप तो है ही नहीं, जिनवाणी की विराधना का अधमकार्य है।

चिन्तन तो हमारे जीवन से समाप्त हो रहा हे। पाठ भी किया जाता है, पर बना समझे मात्र दुहराना होता है; दुहरान भी सही रूप से कहाँ हो पाता? भक्तामर और तत्वार्थसूत्र का निष्तय पाठ सुनने वाली बहुत-सी माता-बहिनों को उनमें प्रतिपादित विषयवस्तु की बात तो बहुत दूर, उसमें कितने अध्याय हैं - इतना भी पता नहीं होता है। किन्हीं महारारज से प्रतिज्ञा ले ली है कि सूत्रजी का पाठ सुने बिना भोजन नहीं करूंगी - सो उसे ढोये जा रही है।

वास्तविक ’पाठ’ तो बाँचना, पृच्छना, अनुप्रेक्षापूर्वक होता हैं विषय का मर्म ख्याल में आ जाने के बाद उसे धारा में लेने के उद्देश्य से ’पाठ’ किया जाता हैं

उपदेश का क्रम सबसे अन्त में आता है, पर आज हमउ पदेशक पहिले बनाना चाहते हैं - बाँचना, पृच्छना, अनुप्रेक्षा और आम्नाय के बिना ही। धर्मोपदेश के सुनने वालेक भी इसके प्रति सावधान नहीं दिखाई देते। धर्मोपदेश के नाम पर कोई भी उन्हें कुछ भी सुना दे; उन्हें तो सुनना है, सो सुन लेते हैं। वक्ता और वक्तव्य पर उनका कोई ध्यान ही नहीं रहता।

मैं एक बात पूछता हूँ कि यदि आपको पेट का ऑपरेशन कराना हो तो क्या बिना जाने चाहे जिससे करा लेंगे? डॉक्टर के बारे में पूरी-पूरी तपास करते हैं। डॉक्टर भी जिस काम में माहिर न हो, वह काम रकने की सहज तैयार नहीं होता। डॉक्टर और ऑपरेशन की बात तो बहुत दूर; यदि हम कुत्र्ता भी सिलाना चाहते हैं तो होशियाद दर्जी तलाशते हैं और दर्जी भी यदि कुत्र्ता सीना नहीं जानता हो तो सीने से इन्कार कर देता है। पर धर्म का क्षेत्र ऐसा खुला है कि चाहे जो बिना जाने-समझे उपदेश देने को तैयार हो जाता है और उसे सुनने वाले भी मिल जाते हैं।

वस्तुतः बात यह है कि धर्मोपदेश देने और सुनने को हम गंभीररूप से ग्रहण ही नहीं करते, यों ही हलके-फुलके निकाल देते हैं। अरे भाई! धर्मोपदेश भी एक तप है, वह भी अंतरंग; इसे आप खेल समझ रहे हैं। इसकी गम्भीरता को जानिए - पहचानिए। उपदेश देने-लेने की गम्भीरता को समझिये, इसे मनोरंजन और समय काटने की चीज मत बनाइये। यह मेरा विनम्र अनुरोध है।

जिनवाणी के योग्य वक्ता तथा श्रोताओं का सही स्वरूप महापंडित टोडरमलजी ने मोक्षमार्गप्रकाशक के प्रथम अधिकार में विस्तार से स्पष्ट किया है। जिज्ञासु पाठक तत्संबंधी जिज्ञासा वहाँ से शांत करें।

स्वाध्याय एक ऐसा तप है कि अन्य पतों में जो लाभ हैं वे तो इसमें हैं ही, साथमें यह ज्ञानवृद्धि का भी एक अमोघ उपाय है। इसमें कोई विशेष कठिनाई व प्रतिबंध भी नहीं हैं। चाहे जब कीजिए - दिन को, रात को; विशेष कठिनाई व प्रतिबंध भी नहीं है। चाहे जब कीजिए - दिन को, रात को; स्त्र-पुरूष, बाल-वृद्ध युवक सभी करें। एक बार नियमित स्वाध्याय करके तो देखिये इसके असीम लाभ से आप स्वयं भली-भाँति परिचित हो जावेंगे।

प्रमाद व अज्ञान से लगे दोषों की शुद्धि के लिए आत्म-आलोचना, प्रतिक्रमणादि द्वारा प्रायश्चित्त करना प्रायश्चित्तप है।

बाह्याभ्यनतर परिग्रह के त्याग को व्युत्सर्गतप कहते हैं। इसकी विस्तृत चर्चा त्याग व आकिंचन्य धर्म में आगे विस्तार से होगी ही।

अब रही बात ध्यान की। सो ध्यान तो सर्वोत्कृष्ट तप है। ध्यान की अवस्था में ही सर्वज्ञता की प्राप्ति होती है। यहाँ ध्यान से तात्पर्य आत्र्त-रौद्रध्यान से नहीं, शुभभावरूप धर्मध्यान से भी नहीं; बल्कि उस शुद्धोपयोगरूप ध्यान से है जो कम-ईंधन को जलाने में अग्नि का काम करता है, जिसकी परिभाषा आचार्य उमास्वामी ने तत्वार्थसूत्र के नववें अध्याय में इसप्रकार दी है -

’अत्तमसंहननस्यैकाग्रचिंतानिरोधो ध्यानमान्तर्मुहूर्तात्।।27।।’

वैसे तो दुकानदार ग्राहक का, डॉक्टर मरीज का, पति पत्नी का निरंतन ही ध्यान करते हैं। पर मात्र चित्त का एक ओर ही एकाग्र हो जाना ध्यानतप नहीं है, वरन् ’स्व’ में एकाग्र होना ध्यानतप है। भले ही पर में एकाग्र होना भी ध्यान हो, पर ध्यानतप नहीं। ध्यानतप तो समस्त ’पर’ एवं विषय-विकारों से चित्त को हटाकर एक आत्मा में स्थिर होना ही है। यदि शुद्धोपयोगरूप ध्यान की दशा एक अन्मु्रहूत्र्त भी रह जावे तो केवलज्ञान की प्राप्ति हो जाती है।

समस्त तपों का सार ध्यानतप है, इसकी सिद्धि के लिए ही शेष सब तप हैं।

इस परमपवित्र ध्यानतप को पाकर सभी आत्माएं शीघ्र परमात्मा बनें - इस पवित्र भावना के साथ विराम लेता हूँ।