उत्तम ब्रह्मचर्य धर्मः

मंगलाचरण

श्री मज्जिनेन्द्रकथिताय सुमंगलाय
लोकोत्तमाय शरणाय विनेयजन्तोः।
धर्माय कायवचनाशयशुद्धितोऽहं,
स्वर्गापर्वफलदाय नस्कारोमि।।1।।

अर्थ- विनीत प्राणियों के लिए स्वर्ग और मोक्ष रूपी फल को देने वाले लोक में मंगल, उत्तम और शरण धर्म के लिए मैं मन, वचन और काय की शुद्धि पूर्वक नमस्कार करता हूं।

ब्रह्मचर्य की प्रशंसा

ब्रह्म संचेतसां पादौ, चक्र वत्र्यादयो नराः।
नमिन्त भकित भारेण, का कथाऽन्य नृपेषु च।।2।।

अर्थ- ब्रह्मचारियों के चरणों में चक्रवर्ती आदि भी भक्ति से नमस्कार करते हैं, तब अन्य राजाओं की क्या कथा।

इन्द्राद्याः हि सुराः सर्वे, शिरसा प्रणमन्ति भो!
भक्ति भारेण सन्नम्राः, पादौ व्रह्मब्रतात्मनाम्।।3।।

अर्थ- हे भव्य! ब्रह्मचारियों के चरणों में इन्द्र आदि समस्त देव भी भक्ति से नम्रीभूत होकर शिर से प्रमाण करते हैं।

धीरै र्वीरे र्नरै र्दक्षै - ज्र्ञानिभि व्र्रततत्परैः।
ब्रह्मचर्यं व्रतं धर्तुं, शक्यते न च कातरैः।।4।।

अर्थ- वतों में तत्पर धीर वीर समर्थ ज्ञानी मनुष्यों के द्वारा ब्रह्मचर्य व्रत धारण किया जा सकता है, कायरों द्वारा नहीं।

एकमेव व्रतं श्लाध्यं, ब्रह्मचर्यं जगत्त्रये।
यद् विशुद्धिं समापन्नाः, पूज्यन्ते पूजितैरपि।।5।।

अर्थ- एक ब्रह्मचर्य व्रत ही तीनों लोकों में प्रशंसनीय है, जो कि विशुद्धि को प्राप्त हुये पूज्य पुरूषों के द्वारा भी पूजा जाता है।

अंक स्थानं भवेच्छीलं शून्य स्थानम् व्रतादिकम्।
अंक स्थाने पुर्नष्टे सर्व शून्य व्रतादिकम् ।।6।।

अर्थ- शील को अंक के स्थानापन्न माना गया है और व्रतादिक को शून्य के स्थानापन्न माना गया है, इसलिए शील के नष्ट हो जाने पर व्रतादिक निष्फल हो जाते हैं।

स्वपुत्री भगिनी मातृ-समं पश्चति यः सदा।
त्यक्ता च मनसा रागं, ब्रह्मचारी भवे् स ना।।7।।

अर्थ- जो मनुष्य मन से राग छोड़कर अपने से छोटी स्त्री को पुत्रीवत्, बराबर को बहिन की तरह, तथा अपने से बडी को माता की तरह देखता है वह ब्रह्मचारी होता है।

दिनैंक ब्रह्मचर्यं यो विधत्तेऽभ्यदानतः।
नवलक्षजीवनां वै तस्य पुण्यं न वेदम्यहम्।।8।।

अर्थ- जो एक दनि के लिए ब्रह्मचर्य व्रत की रक्षा करता है वह नव लाख जीवों को अभयदान देता है। उसके पुण्य को हम नहीं जानते अर्थात् उसे अतिशय पुण्य का बन्ध होता है।

मलबीजं मल योनिं गलन्मलं पूतिगन्धि बीभत्सं।
पश्यन्नगंमनगाद् - विरमति यो ब्रह्मचारी सः।।9।।

अर्थ- जो शरीर के रजो वीर्य रूप मल से उत्पन्न मल, को उत्पन्न करने वाला, मल को बहाने वाला, दुर्गन्ध युक्त, और ग्लानि युक्त देखता हुआ काम सेवन से विरक्त होता है वह ब्रह्मचर्य के बिना समस्त व्रत नहीं होते हैं।

स्त्रीतश्चित्त निवृत्तं चेन्, ननु वित्तं किमीहसे।
मृतमण्डनकल्पोहि, स्त्रीनिरीहे धनग्रहः।।11।।

अर्थ- हे भव्य! यदि स्त्री से रहित (विरक्त) है तो धन को क्यों चाहता है, स्त्री से विरकत् पुरूष का धन संग्रह करना मृतक को सजाने के समान है।

सौम्य धातु क्षये पुसां, सर्व धातु क्षयो यतः,
तस्मात्तं रक्षयेद् यत्नात्, मूलोच्छेदं न कारयेत्।।12।।

अर्थ- जिस कारण पुरूषों के वीर्य धातु के क्षय हो जाने पर समस्त धातुओं का क्षय हो जाता है, इसलिए यत्नपूर्वक वीर्य की रक्षा करना चाहिए, जड का उच्छेद नहीं करना चाहिए क्योंकि जड के बिना वृक्ष नहीं ठहरता है।

यः करोति गुरूभाषितं मुदा, संश्रये वसति वृद्धसंकुले।
मुंचति तरूणलोकसंगतिं, ब्रह्मचर्यममलं स रक्षति।।13।।

अर्थ- जो गुरू की आज्ञा का सहर्ष पालन करताहै, वृद्धों के समूह में निवास करता है, जवानों की संगति छोडता है, वह निर्मल ब्रह्मचर्य की रक्षा करता है।

’’ब्रह्मव्रते परिनिष्ठो, भव्यजीवो लौकान्तिको भवेत्’’

अर्थ- ब्रह्मचर्य में निष्ठ भव्य जीव एक भवतारी लौकान्तिक देव होता है।

ब्रह्मचर्य पालय सारं, धर्मसारगुणदं भवतारम्।
स्वर्गमुक्तिगृहप्रापणहेतुं, दुःखसागरविलड्. धनसेतुम्।।14।।

अर्थ- हे भव्य, धर्म का सार गुणों को देने वाला, स्वर्ग मोक्ष रूपी घर को प्राप्त करने का हेतु, दुःख रूपी सागर को लांघने का सेतु (पुल) स्वरूप सारभूत ब्रह्मचर्य का पालन करो।

रक्ष्यमाणे हि वृहन्ति, यत्राऽहिंसादयो गुणाः।
उदाहरन्ति तद्ब्रह्म, ब्रह्मविद्याविशारदाः।।15।।

अर्थ- जिसकी रक्षा करने पर जहां अहिंसा आदि गुण वृद्धि को प्राप्त होते हैं, उसे ब्रह्म विद्या के ज्ञाता ब्रह्मचर्य कहते हैं

मृदुशय्या नवं वस्त्रं, ताम्बूलं स्नानमण्डनम्।
दन्तकाष्ठं सुगन्धं च, ब्रह्मचर्यस्य दूषणम्।।16।।

अर्थ- कोमल शय्या, नवीन वस्त्र, पान (ताम्बूल) स्नान, मण्डन, काष्ठ की दातोन, सुगन्धित तेल से ब्रह्मचर्य के दूषण है।

सव्वेसिं इत्थीणं जो अहिलासं ण कुव्वदे णाणी।
मण वाया काएण य, बंभवई से हवे सदाओ।।17।।

अर्थ- जो दयालु ज्ञानी, मन, वचन, काय से समस्त स्त्रियों की अभिलाषा नहीं करता है वह ब्रह्मचर्य व्रत का धारी होता है।

अनेकानिक सहस्त्राणि, कुमारा ब्रह्मचारिणः।
दिवं गताः हि राजेन्द्र! अकृत्वा कुल सन्ततिं।।18।।

अर्थ- हे राजन्! संतान को उत्पन्न करके हजारों बाल ब्रह्मचारी स्वर्ग गये हैं।

दुग्धाद्याः सबलाहाराः सुस्वादा मोदकादयः।
कामग्निदीपिका ग्राह्या, न क्वचित् ब्रह्मकाड् क्षिभिः ।।19।।

अर्थ- ब्रह्मचर्य की रक्षा करने वाले मनुष्यों को दूध एवं गरिष्ठ (जिस भोजन के करने पर जठराग्नि पर जोर पड़े वह गरिष्ठ आहार कहलाता है।) काम को उद्दीप्त करने वाले पदार्थ भोजन में ग्रहण नहीं करना चाहिए।

यथा तृणादिसंयोगैः प्रादुर्भवेद् गृहेऽनलः।
तथा काये च कामाग्निः सबलाहारसेवनैः ।।20।।

अर्थ- जैसे तृणादि के संयोग से घर में अग्नि उत्पन्न हो जाती है, उसी प्रकार गरिष्ठ आहार के सेवन से शरीर में काम रूपी अग्नि उत्पन्न हो जाती है।

ब्रह्मचर्य व्रत की पांच भावना

स्त्रीरूप-मुख-श्रृंगार-विलासाद्यनिरीक्षणं।
पूर्वानुभूत सद भोग-रत्यादि स्मरणोज्झनम्।।21।।

अर्थ- स्त्रियों में राग बढाने वाला रूप, मुख, श्रृंगार, विलास आदि के निरीक्षण का पूर्व अनुभूत भोगों एव रति के स्मरा का त्याग करना, वे ब्रह्मचर्य व्रत की पांव भावनाएं है।

शी के अठारह हजार भेद

’’अथ वक्ष्ये समासेन शीलानि सकलान्यपि’’

अर्थ- अब शील के संक्षेप के समस्त भेदों को कहते हैं।

त्रियोगाः करणं त्रेधा, चतुः संज्ञा ख पंच वै।
दश पृथ्वादिकायाश्य, धर्माः क्षमादयो दश।।22।।

अन्योऽन्यं गुणिता एते, योगाद्याः श्रुतकोविदैः।
अष्टादश सहस्राविण, शीलानि स्युर्महात्मनाम्।।22।।

अर्थ- तीन योग, तीन करण, चार संज्ञा, पांच इंद्रियां, पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति के बाद सूक्ष्म की अपेक्षा 10 भेद, उत्तम क्षमा आदि 10 इन सबका गुणा करने पर ज्ञानियों ने, महात्माओं के शील के 18000 भेद कहे हैं। 3 गुणा 3 = 9 गुणा 4 = 36 गुणा 5 = 180 गुणा 10 = 1800 गुणा 10 = 18000

शीलेन रक्षितो जीवो, न केनाप्यभिभूयते।
महाहृद निमग्नस्य किं करोति दवानल ।।23।।

अर्थ- शील से रक्षित जीव किसी के द्वारा अभिभूत नहीं होता जैसे महाहृद में डूबे हुए व्यक्ति का दावानल क्या कर लेती है अर्थात कुछ नहीं।

दश शील के विराधक

स्त्री गोष्ठिर्वृष्यभुक्तिश्च, गन्धमाल्यादि वासनं।
शयनासनमाकल्प षष्ठं गन्धर्ववासितम्।।24।।

अर्थसंग्रहः दुःशील-संगती राजसेवनं।
रात्रौसंचरणं चेति, दश शीलविराधनाः।25।।

अर्थ- स्त्रियों के सम्पर्क में रहना, गरिष्ठ भोजन करना, सुगन्धित तेल मालादि पहनना, स्त्रियों के समीप सोना बैठना, गाने वलो के समीप रहना, धन का संग्रह करना, कुशीली स्त्री पुरूषों की संगति करना, राजाओं की सेव करना रात्रि में घूमना ये दश ब्रह्मचर्य के विनाशक हैं।

शील की प्रशंसा

शीलेन प्राप्यते सौख्यं, शीलेन विमलं यशः।
शीलेन लभ्यते मोक्षः तस्माच्छीलं वरं व्रतं।।26।।

शीलेन शोभना नार्यः, शीलेन सुगुणाः सदा।।
शीलेन सम्पदः सर्वाः शीलतो नापरं शुभम्।।27।।

अर्थ- शील से सुख् प्राप्त होता है, शील से निर्मल यश प्राप्त होता है शील से मोक्ष प्राप्त होता है, इसलिए शीलव्रत श्रेष्ठ है।

शील से स्त्रियां सुशोभित होती है, शील से सुगुणों की प्राप्ति होती है, शील से समस्त सम्पत्तियां प्राप्त होती है, अतः शील से श्रेष्ठ व्रत दूसरा नहीं है।

सीता सुरैः सदा पूज्या, जाता मन्दोदरी तथा।
शीलान् मदन मंजुषा, जुष्टा यौग्यै गुणैरभूत्।।28।।

अर्थ- शील के प्रभाव से सीता, मन्दोदरी, रयण मंजूषा इत्यादि सतियां देवों द्वारा ूपजी गयी एवं गुणों को प्राप्त हुयी थी।

शीलाभरणयुक्तांश्य त्रिजगधीः स्वयं मुदा।
व्रणोत्येत्य जिनश्रीश्च, मुक्तिरालोकते मुहुः ।।29।।

अर्थ- शील रूपी आभूषण से युक्त पुरूष को जिनेन्द्र भगवान् की लक्ष्मी सहित तीनों लोकों की लक्ष्मी आकार स्वयं वर लेती है, तथा मुक्ति लक्ष्मी बार-बार अवलोकन करती है।

प्रकम्पन्ते सुरेशानां, शीलेनाासनानि भोः।
किंनारा इस सेवन्ते, पादान् शील जुषां सुराः।।30।।

अर्थ- हे भव्य! शील के प्रभाव से स्वर्गों में इन्द्रों के आसन कम्पायमान हो जाते हैं, एवं देवता आकर नौकरों की तरह शीलवानों के कारणों की सेवा करते हैं।

जीवितव्यं दिनैकं च, वरं शीलवतां भुवि।
निःशीलानां वृथा नूनं, पूर्वकोटिशतप्रमम्।।31।।

अर्थ- पृथ्वीपर शीलवानों का एक दिन भी जीना अच्छा है किंतु शील रहित मनुष्यों का करोड़ों वर्ष जीना भी व्यर्थ है।

शीलप्रधानं न कुलप्रधानं, कुलेन कि शीलविवर्जितेन।
बहवो नरा नीचकुलेषु जाताः स्वर्ग गता शीलमुपेत्य धीराः।।32।।

अर्थ- ब्रह्मचर्य प्रधान है, कुल प्रधान नहीं है, ब्रह्मचर्य रहित कुल से क्या प्रयोजन है, नीच कुल में भी उत्पन्न बहुत से धीर पुरूष शील को धारण करके स्वर्ग को प्राप्त हुए हैं।

धनहीनोऽपि शीलाढ्यः पूज्यः सर्वत्र विष्टपे।
शीीलहीनो धनाढ्योऽपि पूज्यः स्वजनेष्वपि।।33।।

अर्थ- शील से युक्त पुरूष धन रहित होने पर भी तीनों लोकों में पूजा जाताहै, किंतु शील रहित मनुष्य धनवान होने पर भी अपने बंधुओं से भी सम्मान को प्राप्त नहीं होता है।

मैथुन के दस भेद

आद्यं शरीरसंस्कारों, द्वितीयं वृष्यसेवनम्।
तौर्यत्रिकं तृतीय स्यात्, संसर्गस्तुर्यमिष्यते।।34।।
योषिद्विषयसंकल्पः, पंचमं परिकीर्तितं।
तदगंवीक्षणं षष्ठं, संस्कार, सप्तमं मतम्।।35।।
पूर्वानुभोगसंभोग-स्मरणं स्यात्तदष्टमम्।
नवमं भाविनी चिंता, दशमं वस्तिमोक्षणम्।।36।।

अर्थ-

1. स्व शरीर का संस्कार

2. गरिष्ठ भोजन

3. गाना, बजाना नाचना

4. स्त्रियों की संगति करना

5. स्त्री विषयक संकल्प करना

6. स्त्री के मनोहर अंगो का अवलोकन करना,

7. स्त्रियों का सत्कार करना

8. पूर्व में भोगे हुए भोगों का स्मरण करना

9. भविष्य में भोगों की वांछा करना

10. काम की तीव्रता से मरण होनाया वीर्य का क्षरण होना ये मैथुन के दस भेद हैं।

जो परिहरेदि संगं, महिलाणं णेव पस्सदे रूवं।
कामकहादिनिरीहो णवविहं वंभं हवे तस्स।।37।।

अर्थ- जो स्त्रियों की संगति का परिहार करता है, उनका रूप आदि नहीं देखता तथा काम कथा आदि से विरक्त रहता है उसके नव प्रकार का ब्रह्मचर्य व्रत होत है।

काकः कृमिकृलाकीर्णे, करडें कुरूते रतिम्।
यथा तद्वद् वराकोऽयं कामी स्त्री गुह्यमन्थने।।38।।

अर्थ- जैसे कौआ कीडो से व्याप्त हड्डियों के पिजड़े में रति करता है, उसी प्रकार यह अभागा कामी प्राणी कीडों से व्याप्त स्त्रियों के गुह्य अंग में क्रीड़ करता है।

मेहुणसण्णरूढो, मारई णवलक्खसुहुमजीवाई।
इय जिण्वरेहिं भणियं, बज्झभंतर णिग्गंथरूवेहिं।।39।।

अर्थ- एक बार मैथुन करने वाला व्यक्ति नो लाख सूक्ष्म लब्ध्यपर्याप्तक पंचेन्द्रिय जीवों की हिंसा करता है ऐसा बाह्य आभ्यंतर परिग्रह रहित वीतराग जिनेन्द्र भगवान ने कहा है।

मैथुन के दुष्परिणाम

आयुस्तेजो बलं वीर्यं, प्रज्ञा श्रीश्च महायशः।
पुण्यं सुप्रीतिमत्वं च, हन्यतेऽब्रह्यसेवया।।40।।
अकालजरया युक्तः पुरूषः स्त्रीनिषेवणात्।
अथवा यक्ष्मणाः, तस्माद् युक्तं निषेवयेत्।।41।।

अर्थ- मैथुन सेवन से आयु, शरीर का तेज, बल, वीर्य, बुद्धि, धन, यश प्रीति दायक पुय इत्यादि नष्ट हो जाते हैं। स्त्री सेवन से मनुष्य अकाल में वृद्ध हो जाता है अर्थात् शीघ्र बाल सफेद हो जाते हैं, आंखों से कम दिखाई देने लगता है, स्मरण शक्ति नष्ट हो जाती है, कानों से कम सुनाई देने लगता है, दां गिर जातें हैं, जिह्वा लड़खडाने लगती है तवचा में झुर्रियां पड़ जाती है, खून की कमी हो जाती है, पैर लड़खड़ाने लगते हैं, कमर झुक जाती है, टी.बी. आदि रोग हो जाते हैं। इसलिए यदि सर्वथा त्याग न कर सके तो जैसे रोग के निवारण करने के लिए परिमित मात्रा में औषधि का सेवन करता है। औषधि को अच्छा नही समझता, भविष्य में औषधि कभी नहीं खाना चाहता जैसे अर्जीण के भय से भूख मिटाने के लिए सीमित भोजन करता है उसी प्रकार विषय का सेवन करना चाहिए।

अनेक दुःख सन्तान - निदानं विद्धि मैथुनं।
कथं तदपि सेवन्ते, हन्त रागान्धबुद्धयः।।42।।

अर्थ- हे भव्य! अनेक प्रकार के दुःखों की परम्परा का कारण मैथुन को जानो/खेद है कि राग से अंधहै बुद्धि जिनकी वे प्राणी मैथुन कैसे सेवन करते हैं।

काम के दस वेग

प्रथमे जायते चिनता, द्वितीये दृष्टुमिच्छति।
तृतीय दीर्घ निश्वासाश्चतुर्थे भजते ज्वरम्।।43।।

पंचमे दह्यते गात्रं, षष्ठे भक्तं न रोचते।
सप्तमे स्यान् महामूच्र्छा उन्मत्तवमथाष्टेमे।।44।।

नवमे प्राणसन्दे हो, दशमे मुच्यतेऽसुभिः।
एतै र्वेगैः समाक्रान्तो जीवास्तत्वं न पश्यति।।45।।

अर्थ-

1. प्रथम वेग में काम सम्बंधी चिंता

2. स्त्री को देखने की इच्छा

3. दीर्घ स्वासोच्छवास

4. ज्वर का आना

5. शरीर में दाह उत्पन्न होना

6. भोजन न रूचना

7. महा मूर्छा आना

8. पागल की भांति चेष्ट करना

9. प्राण बचने का संदेह होन

10. मरण होना

इन वेगों से अक्रांत जीव-हित-अहित को नही जानता है एवं आत्मा के वास्तवकि स्वरूप को नहीं देखता है।

स्त्री दोष

धारयन्त्यमृतं वाचि, हृदि हालाहलं विषयम्।
निसर्गकुटिला नार्यो, न विद्भः केन निर्मिताः।।46।।

अर्थ- जो वचनों में अमृत को धारण करती हैं तथा हृदय में हालाहल विष को धारा करती हैं मैं नहीं जानता ऐसी स्थिति में स्वभाव से कुटिल स्त्रियों को किसने बनाया है।

भेत्तुं शूलमसिं छेत्तुं, कर्तितुं क्रकचं दृढम्।
नरान् पीडयितुं यन्त्र, वेधसा विहिताः स्त्रियाः।।47।।

अर्थ- आचार्य उत्प्रेक्षा करते हैं कि ब्रह्मा ने जो स्त्रियां बनाई है,ं वे मनुष्यों को बेधने के लिए शूली काटने के लिए तलवार, कतरने के लिए दृढ़ करोत (आरा) अथवा पेलने के लिए मानों यंत्र ही बनाये हैं।

निर्दयत्वमनार्यत्वं, मूर्खत्व-मतिचापलम्।
वंचकत्वं कुशीलत्वं स्त्रीणां दोषाः स्वभावजाः।।48।।

अर्थ- निर्दयता, धूर्तता, मूर्खता, चंचलता, वंचकता, काम वासना इत्यादि दोष स्त्रियों में स्वभाव से होते हैं।

यदि मूर्ताः प्रजायन्ते, स्त्रीणां दोषाः कथंचन।
पूरयेयुस्तदा नूनं, निःशेषं भुवनोदरम्।।49।।

अर्थ- यदि स्त्रियों में पाये जाने वाले दोष कदाचित, मूर्त रूप धारण कर ले तो सम्पूर्ण लोक भर जायेगा अर्थात् स्त्रियों में अनन्त दोष होते हैं।

यदीन्दुस्तीव्रतां धत्ते, चण्डरोचिश्च शीततां।
दैवात्तथाऽपि नो धत्ते, नारि नारी स्थिरं मनः।।50।।

अर्थ- कदाचित चन्द्रमा गमर हो जाय और सूर्य ठण्डा हो जाय तो भी स्त्री का मन एक पुरूष में स्थिर नहीं रह सकता है।

कुद्ध कण्ठीरवः सर्पः, स्वीकर्तुं जातु शक्यते।
न चित्तं दुष्टवृत्तीना- मेतासामतिभीषणम्।।51।।

अर्थ- कदाचित क्रोधित सिंह तथा सर्प आदि को वश में किया जा सकता है, किंतु दुष्ट चरित्र स्त्रियों के भीषण मन को वश में नहीं किया जा सकता है।

वन्ध्यांगजस्य राज्यश्रीः, पुष्पश्रीर्गगनस्य च।
स्याद् दैवान्न तु नारीणां मनः शुद्धि र्मनागपि।।52।।

अर्थ- भाग्य से बन्ध्या स्त्री के पुत्र को राज्य लक्ष्मी प्राप्त हो सकती है और आकाश के फूलों की माला बनाई जा सकती है, किंतु स्त्रियों के मन की थोड़ी भी शुद्धि नहीं हो सकती है।

देव दैत्योरग व्याल‘ग्रह चन्द्रार्क चेष्टितम्।
विदन्ति ये महाप्राज्ञाः तेऽपि वृत्तं न योषितम्।।53।।

अर्थ- जो महाबुद्धिमान देव, दानव, सर्प, व्याघ्र, ग्रह, चन्द्रमा,सूर्य आदि की चेष्टाओं को जानते हैं, वे भी स्त्रियों के चरित्र को नहीं जानते हैं।

भग्न भाण्डे यथा नीरं, क्षीरं श्वानोदरेतथा।
गुह्वार्ता तथा स्त्रीणां, हृदये नैव तिष्ठति।।54।।

अर्थ- जैसे फूटे बर्तन में पानी, कुत्ते के पेट में दूध नहीं ठहरता उसी प्रकार स्त्रियों के हृदय में गोप्य बात नहीं ठहरती अर्थात् किसी ने किसी से कह ही देती हैं।

दर्शनात् हरते चित्तं, स्पर्शनात् हरते बलं।
संभोगात् हरते वीर्यं नारी प्रत्यक्ष राक्षसी।।55।।

अर्थ- जो देखने पर मन को हर लेती है, छूने पर बल को, संभोग करने पर वीर्य को हरने वाली स्त्रियां प्रत्यक्ष ही राक्षसी हैं।

कुलजाती गुणभ्रष्टं, नकृष्टं दुष्टचेष्टितम्।
अस्पृश्यमधमं प्रायो, मन्ये स्त्रीणां प्रियं नरम्।।56।।

अर्थ- आचार्य महाराज कहते हैं, कुल से, जाति से गुणों से भ्रष्ट, निकृष्ट, दुष्ट चेष्टा वाले, अस्पृश्य, अधम मनुष्य प्रायः स्त्रियों को प्रिय होते हैं।

वरमालिगिता क्रुद्धा चलल्लोलाऽत्र सर्पिण।
न पुनः कौतुकेनाप नारी नरकपद्धिति।।57।।

अर्थ- क्रोध से फुंकर मार कर चलती हुई सर्पिणी का आलिंगन करना श्रेष्ठ है किंतु स्त्री को कौतुक मात्र से भी आलिंगन करना श्रेष्ठ नहीं, क्योंकि यदि सर्पिणी दंश् करें (काटे) तो एक बर ही मरण् होता है और स्त्री बार बार मरण् कराकर नरक में ले जाने वाली है।

स्त्री प्रशंसा

सीत्वेन महत्वेन, तृत्तेन विनयेनच ।
विवेकेन स्त्रियः कश्चिद, भूषयन्ति धरातलम्।।58।।

अर्थ- सतीत्व से, महानता से, चारित्र से, विनय से, विवके से कोई स्त्रियां इस धरातल को विभूषित भी करती है।

कार्येषु मन्त्री करणे च दासी, भक्तेषु माता शयनेषु वेश्या।
धर्मे सहाया क्षमया धरित्री षट् कर्मयुक्ताच कुलांगना हि।।59।।

अर्थ- कुलीन स्त्रियां किसी कार्य में सलाह देने के लिए मंत्री के समान, कत्र्तव्य पालन में दासी के समान, भेजन के समय माता के समान, शयन में वेश्या के समान (निर्लिप्त) धर्म अर्थात् दान-पूजा में बन्धुओं के समानद्व क्षमा में पृथ्वी के समान इन छह कार्यों में आचरण करती हैं।

स्त्री संसर्ग दोष

द्विपमिव हरिकान्ता,, मड्क्षु मीनं वकीव,
भुजगमिव मयूरी मूषकं वा विडाली।
गिलति विकट वृत्तिः संयतं निर्दय स्त्री,
निकटमिति तदीयं सर्वथा वर्जनीयम्।।60।।

अर्थ- जैसे मोररनी सर्प को, बिल्ली चूहे को, शेरनी हाथी को, वगुली मछली को, शीघ ही निगल लेती है, उसी प्रकार निर्दय स्त्री संयत के चारित्र को नष्ट कर देती है। इसलिए स्त्री की संगति सर्वथा छोडऋ़ देना चाहिए।

प्रथयति भव मार्गं मुक्तिमार्ग रूणद्धि,
दवयति शुभ बुद्धिं पाप बुद्धिं विधत्त।
जनयति जनजल्पं श्लोकवृक्षं लुनीते,
वितरीति किमु कष्टं, संगति र्नांगनानानम्।।61।।

अर्थ- स्त्रियों की संगति संसार मार्ग को विस्तृत करती है। मोक्ष मार्ग को निरोध करती है, शुभ बुद्धि को घटाती है, पाप बुद्धि को बढ़ाती है, मनुष्यों से वचनालाप को उत्पन्न करती है, श्लोक रूपी वृक्ष को काटती है और कौन से कष्ट प्रदान नहीं करती अर्थात् समस्त कष्टों को देती है।

धन्यास्ते एव लोकेऽस्मिन् यै ब्र्रह्म निर्मलं क्वचित्।
स्वप्नेप्युपद्रितैः स्त्रीभि, र्न नीतं मलन्निधौ।।62।।

अर्थ- इस लाक में वे ही मनुष्य धन्य है जिनका ब्रह्मचर्य स्वप्न में भी स्त्रियों द्वारा मलिन नहीं किया गया है।

न केवलं बुधैस्त्याज्यः, संसर्गों योषितामिह।
किन्तु निःशीलपुंसां च संगो लोक द्वयान्तकृत्।।63।।

अर्थ- केवल ज्ञानियों को स्त्री का संसर्ग त्याज्य नहीं है, किंतु शील रहित पुरूषों ाके भी दोनों लोकों का नाश करने वाली स्त्रियों का संपर्क त्याग करना चाहिए।

ब्रह्मचर्य विशुद्धयर्थं, संगः, स्त्रीणाम् न केवलं।
त्याज्यः पुंसामपि प्रायो, विटविद्याऽवलम्बिनाम्।।64।।

अर्थ- केवल ब्रह्मचर्य की विशुद्धि के लिए स्त्री संगति त्याज्य नहीं है किंतु विद्या के इच्छुक कामुक मनुष्यों को भी स्त्रियें के संपर्क में नहीं आना चाहिए।

कुशील का फल

कुलें कलंकपरलोकदुःखं, यशः श्रुतिधर्मधनस्य हानिः।
नीचास्यता स्यात् स्वजनै र्विरोधो, भवन्ति दुःखानि कुशीलयुक्ते।।65।।

अर्थ- कुशील सेवन करने पर कुल में कलंक लगता है, पर लोक में दुःखों की प्राप्ति होती है यश, ज्ञान, धर्म, और धन की हानि होती है, मुख नीचा हो जाता है, आत्मीय जनों से विरोध जन्य दुःख होता है।

वृद्ध सेवा प्रशंसा

अभिवादनशीस्य, नित्यं वृद्धोपसेविनः।
चत्वारि तस्य वर्धन्ते, आयुर्विद्यायशोर्णिबलम्।।66।।

अर्थ- अभिवादन करने वाले एव ंहमेशा वृद्धों की सेवा करने वाले की आयु, विद्या, यश और बल इन चार की वृद्धि होती है।

तपः कुर्वनतु वा मा वा, चेद् वृद्धान् समुपासते।
तीत्र्वा व्यसनकान्तारं, यान्ति पुण्यां गतिं नराः।।67।।

अर्थ- तपश्चरण करे अथवा नहीं करे यदि मनुष्य वृद्धों की सेवा करता है तो कष्ट, रूपी जंगल को पार कर पवित्र गति को प्राप्त होता है।

कुर्वन्नपि तपस्तीव्रं, विदन्नपि श्रुतार्णवं।
नासादयति कल्याणं, चेद् वृद्धानवमन्यते।।68।।

अर्थ- साधक श्रुत रूपी समुद्र को जानता हुआ तथा तीव्र तप करता हुआ भी यदि वृद्धों की अवहेलना कता है तो कल्याण को प्राप्त नहीं होता है।

तपः-श्रुत-धृति-ध्यान-विवके-यम संयमैंः।
ये वृद्धास्तेऽत्र शस्यन्ते न पुनः पलिताकुरैः।।69।।

अर्थ- यहां सफेद बालों वाले वृद्ध नहीं लेना किंतु जो तप, ज्ञान, धैर्य, ध्यान, विवके, अनुभव, यम संयम से ज्यादा है वो वृद्ध प्रशंसनीय तथा सेवा के योग्य हैं।

गुण-दोषौ प्रजायेते, संसर्गवशतो यतः।
संसर्गःपावनः कार्यों, विमुच्याऽऽपावनं यतः।।70।।

अर्थ- सत्संगति के गुणों की एवं कुसंगति से दोषों की प्राप्ति होती है। इसलिए कुसंगति छोड़कर सत्संगति करना चाहिए।

धर्म का फल

विद्या तपो धनं शौर्यं, कुलीनत्वमरोगिता।
राज्यं स्वर्गश्च मोक्षश्च, सर्वं धर्मादवाप्यते।।71।।

अर्थ- विद्या, तप, धन, शूर वीरता, कुलीनता, निरोगता, राज्य, स्वर्ग और मोक्ष सब कुछ धर्म से प्राप्त होता है इसलिए धर्माचरण करना चाहिए।

उत्तम ब्रह्मचर्य धर्म- कथानक

1. बुन्देलखं डमें एकछत्र शासक पन्न नरेश महाराज छत्रसाल का सन्दर्भ हमारी संस्कृति को गौरवान्ति करने वाला है। एक बार की बात- महाराज छत्रसाल से एक युवती ने प्रार्थना की कि महाराज आप तो सबके दुःखों को दूर करते हैं अतः मेरी प्रार्थना सुनिये। छत्रसाल बोले - ’’हां, मैं यथासंभव आपका दुःख दूर करूंगा। कहा’’ युवती हंसती हुई बोली - ’’मेरी कोई संतान हनीं है।’’ महाराज बोले - आगे बोलो। युवती बोली -मेरे पति इसमें असमर्थ हैं! महराजा बोले - भगवान् की कृपा से तुम्हें पुत्र हो। युवती बोली महारज् आप मेरा अभिपा्रय नहीं समझे। मैं चाहती हूं कि मुझे आपके समान सुन्दर, सर्वगुण सम्पन्न पुत्र की प्राप्ति हो। आप मेरे हृदय की वेदना दूर करके प्रणयदान दीजिए। अब तक महारा सारी परिस्थिति समझ चुके थे। सो बडी चतुराई से बात करते हुए बोल - तुम्हें मेरे जैसे ही पुत्र की जरूरत है - तो फिर इस पाप को करने की आवश्यकताक्या है? लो मैं ही आपका पुत्र बन जाता हूं। मां! आपका यह पुत्र आपकी जीवन भर सेवा करेगा। इसअप्रत्याशित उत्तर को सुनकर युवती अवाक् रह गई। यह भी एक आदर्श है अपने आचरण का।

2. ’जार्ज बनार्ड शा’ अयरलैण्ड के प्रख्यात लेखक थे। उन्होंने मानव समस्या के अनेक विषयों पर अति महत्वपूर्ण लेखन किया। लेखन का पारिश्रमिक भी उन्हें अच्छा ही मिलता था। वे अजीवन अविवाहित रहे। अपने विचारों को वे पारिवारिक कार्यों में अस्त व्यस्त नहीं करना चाहते थे। वह विद्वता के धनी तो थे किंतु शारीरिक सौन्दर्य नही था। एक सुन्दरी उनसे बुत प्रभावित हुई, उसने सोचा - ’’शा’’ के साथ् विवाह कर लें तो धन और यश् की कमी न रहेगी। अपना अभिप्राय लेकर ’’शा’’ के पा गयई और बोली, आप जैसे विद्वान अैर मेरे जैसे रूपवान शरीर से तो संतान उत्पन्न होगी वह मां बाप दोनों के गुणों से सम्पन्न होगी। ऐसा सुयोग हम लोग बना लें तो कैसा रहे? ’’शा’ उसका मतलब समझ गए। वह मुस्कुराते हुए बोले - देवी! पांसा उलट भी तो सकता है। यदि मुझे जैसा कुरू और आप जैसा मूर्ख बालक जन्मा तो फिर सभी के लिए सिरदर्द बनेगा। जार्ज के इन शब्दों से इन्कारी का उत्तर मिल जाने पर सुन्दरी के पास कहने को कुछ था ही नहीं। यदि हम अपनी मर्यादाओं का उल्लंघन करेंगे तो हमें इसी तरह से लज्जित होना पड़ेगा। मर्यादा में बंधा व्यक्ति एकदम निश्चिंत निराकुल रहता है। यही उसका सुख है। किंतु विषयसक्त कामी पुरूष तो सारी जंदगी दुःखी रहते हैं। उनकी बड़ी विचित्र दशा बनती है।

3. कांपिल्य नगर के राजा नरसिह का सुमति नाम का मंत्री था उसके कडरपिंग नाम का पुत्र था। एक दिन वह मंत्री पुत्र नगर के कुबेरदत्त सेठ की रूप सौन्दर्य की राशि पत्नी प्रियंगुसुन्दरी को देखकर आसक्त हो गया। फिर क्या था, काम ज्वर से पीडित उस पुत्र का खाना पीना भी छूअने लगा। सुमत मंत्री ने पुत्र का हाल जानकर पहले तो काम वासना को मन में धिक्कारा, किंतु पुत्र के मोह में आकर प्रियंगुसुन्दरी को प्राप्त करने के लिए उसके पति कुबेरदत्त को उसने व्यापार आदि के निमित्त द्वीपान्तर भेजना चाहा। प्रियंगुस्नदी बुद्धिमती थी, उसने ताड लिया और अपने पति को समझाया कि यह कामी कडारपिंग के लिए सुमति मंत्री का षडयंत्र हैं। अतः आप द्वीपान्तर जाने का केवल दिखावा करे, आगे की विशेष बात मैं संभा लूंगी। कुबरेदत्त को द्वीपान्तर गया समझ रात के समय कडारपिंग प्रियंगुसंदरी के पास आया। प्रियंगुसन्दरी ने पाखननके कमरे को साफ कराके गड्डे के ऊपर बिना निवार के पलंग पर एक अच्दी सी चार बिछा दी। आए कु कडारपिंग को प्रियंगुसुंदरी ने मिष्टवचनों के साथ पलंग पर बैठने को काह, ज्यों ह ीवह उस पलंग पर बैठने को हुआ कि धड़ाम से अत्यंत दुर्गन्धमय पाखने के मैले में वह जा गिर। गिरते ही उे प्रियंगुसुन्दरी की चुराई की सारी बात समझ में आ गई। अब कडारपिंग को अपनी करनी पर बहुत पश्चाताप हुआ। उस गड्डे में से निकालने की उसने बहुत प्रार्थना की किंतु पाप का फल भोगने के लिए प्रियंगुसुन्दरी ने उसे नहीं निकाला। छह मात व्यतीत होने पर कुबेरदत्त ने द्वीपान्तर से आने का बहाना किया। राजा अैर मंत्री ने उसे जो जल्फ पक्षी लाने को कहा था, सेठ ने पाखाने से कडारपिंग को निकालकर उसे पक्षियों के पंख लगाकर, मुख काला कर हाथ पैर बांध पिंजरे में डालकर राजा के समक्ष उपस्थित किया तथा वास्तविक सब वृत्तान्त कह सुनाया। राजा को सारी बात समझ में आई। पाप के फलस्वरूप राजा ने उसे प्राणदंड दिया। अत्यंत संक्लिष्ट भावों से मरकर कडार पिंग नरक गया। यह है काम का दुष्परिणाम।

4. ’’ब्रह्मचारिणी गाय’’, सत्य घटना है। राजपुरा से बाहर कोस की दूरी पर मुराना गांव है वहां एक परिवर में एक गाय थी। उस गाय ने एक साथ दो बछडे प्रसव किये। बछडे स्वस्थ, सुुंदर और बलिष्ठ थे। बड़ी अच्दी जोडी थी बछड़ों की। उस प्रसव के बाद यह गाय गर्भवती नहीं हुई। से कामोन्मत्त करने के लिए कितने ही प्रयास किये गये किंतु उसे कामेच्छा नहीं हुई। जब उसे ज्यादा परेशान किया गया तो वह अपने मालिक की छोटी सी बालिका को स्वप्न में दिखाई दी। उसने कहा किसबसे कह दो कि मुझे अब गर्भवती करने के प्रयास न किये जाये, मैंने अब ब्रह्मचर्य व्रत ले लिय है। इस तरह मुझे यदि तंग कियागया तो कुंए में कूदकर मैं जान दे दूंगी। लड़की ने स्वप्न की सारी बात घरवालों को बता दी। तो सुनकर सब हंसने लगे। किसी ने इस बात परध्यान नहीं दिया और प्रयत्न चालू रखा। अंत में गाय ने कुंए में कूदकर प्राण छोड़ दिए। तब लोगों ने समझा कि गाय ने ब्रह्मचर्य व्रत धारण कर लिया था। वह है पाप भीरूता और परिणमों का खेल। परिणामों में निर्मलता आने पर तिर्यंच पशु पक्षी भी कठिन से कठिन नियम संयम काभीपपालन करने लगते हैं। और सर्व सुविधा युक्त मानव पर्याय पाकर भी एकप्राणी परिणामां की कलुषता और अत्यंत भोगासक्ति से छोटे-छोटे नियम भी नहीं पाल पाते। पशु पक्षियों का मैथुन काल ऋतु के अनुसार निश्चित रहता है। वह उन्हीं दिनों में ही अपनी इच्छापूर्ति करते हैं किंतु मनुष्य है कि इसकी कोई नियमावली नहीं।

5. एक राजा ज्योतिष विद्या क बडा प्रेमी था। एक मुर्हूत दिखाकर ही स्त्री-समागम करता था। राजा का ज्योतिषी तीन साल से एक बार मुहूर्त निकाल कर देता था। इससे राजा की स्त्री बहुत कुढती रहती थी। एक दिन उसनेराजा से कहा कि ज्येातिषी जी, आप को तो तीन साल बाद का मुहूर्त शोध कर देते हैं औरस्वयं के लिए चाहे जब मुहूर्त निकाल लेते हैं। उनका पोथाीपत्रा क्या जुदा है? देखो न, उनके प्रति वर्ष बच्चे त्पन्न हो रहे हैं। स्त्री की बात पर राजा ने ध्यान दिया और ज्योतिषी को बुलाकर पूछा कि महाराज! क्याआपका पोथी-पत्रा जुदा है? ज्योतिष ने कहा- महाराज! इसकाउत्तर कल राजसभा में दूंगा।दूसरे दिन राजसभा लगी हुई थी। सिंहासन पर राजा असीन थे। उनके दोनों और तीन-तीन वर्ष के अंतराल से उत्पन्न हुए दोनों बच्चे सुंदर वेष-भूषा में बैठे हुये थे। राज सभा में ज्योतिषी जी पहुंचे। प्रति वर्ष उत्पन्न होने वाले बच्चों में से वे एक को कंधे पर रखे थे, एक को बगल में दाबे थे और एक को हाथ से पकडे थे, पहुंचने पर राजा ने उत्तर पूछा? ज्योतिषी ने कहा महाराज, मुहूर्त का बहाना तो मेरा छल था। यर्था बात यह है कि आप राजा हैं आपकी संतान राज्य की उत्तरधिकारी हैं यदि आपके प्रति वर्ष संतान पैदा होती तो वह हमारे इन बच्चों के समान होती एक के नाक बह रही है, एक के आंखों में कीचड़ लग रहा है, कोइ चीं कर रहा है कोई पीं कर रहा है। ऐसी संतान से क्या राज्य की रक्षा हो सकती है? हम तो जाति के ब्राह्मण हैं। हमारे इन बच्चों को राज्य तो करना नहीं है, र्फि अपना पेट पालना है सो येन केन प्रकारेणपाल ही लेंगे। आपके ये दोनों बच्चे तीन-तीन साल के अंतर से हुए हैं और ये हमारे बच्चे एक-एक वर्ष के अंतर से हुए हैं। दोनों ही सूरत मिलान कर लीजिए। राजा ज्योतिषी के उत्तर से निरूत्तर हो गया तथा उसकी दूरदर्शिता पर बहुत प्रसन्न हुआ।

6. मैं आपको एक प्रत्यक्ष घटना सुनाता हूं। मैं (गणेश प्रसाद जी वर्णी) पं. ठाकुर दास के पास पढता था। वे बहुत बडे विद्वान थे। उनकी स्त्री दूसरे विवाह की थी, पर उसकी परिणति की बात हम आपको क्या सुनावें? एक बार पण्डित जी उसके लिएसौ रूपये की साडी ले आये। साडी हाथ मं लेकर वह पण्डित जी से कहती है - पण्डित जी! यह सडी किसके लिए लाये हैं? पंडित जी ने कहा कि तुम्हारे लिए लाया हूं। उसने कहा कि अभी जो साडी मैं रोज पहिनती हूं वह क्या बुरी है? बुरी तो नहीं है पर यह अच्छी लगेगी, ऐसा पण्डितजीने कहा। यह सुन उसने उत्तर दिया कि मैं अच्दी लगने के लिए वस्त्र नहीं पहनना चाहती। वस्त्र का उद्देश्य शरीर की रक्षा है, सौन्दर्य-वृद्धि नही ंऔर सौन्दर्य-वृद्धि कर मैं किसे आकर्षित करूं? आपका प्रेम मुझ पर है यही मेरे लिये बहुत है। उसने वह साडी अपनीनौकरानी को दे दी और कह दिया कि इसे पहिनकर खराब नहीं कना। कुछ बट्टे सेवापिस होगी सो वापिस कर आ और रूपये अपने पा रख, समय पर काम आवेंगे। जब पण्डित जी के 2 संतान हो चुकीं तब एक दिन उसने पण्डित जी से कहा कि देखो अपनेदो संतान एक पुत्र और एक पुत्री हो चुकी। अब पाप का कार्य बंद कर देना चाहिए। पण्डितजी उसकी बात सुनरक कर कुछ हीला-हवाली करने लगे तो एक दिन वह स्वयं उठ कर उनकी गोद में जा बैठी और बोली कि अब तो आप मेरे पिता तुल्य हैं और मैं आपकी बेटी हूं। पण्डित जी गद्गद् स्वर में बोले - बेटी! तूने तो आज वह काम कर दिया। जिसे मैं जीवन भर अनेक शास्त्र पढ़कर भी नहीं कर पाया। उस समय से दोनों ब्रह्मचय से रहने लगे।

उत्तम ब्रह्मचर्य अमृत बिन्दु

1. एक बार के विषय भोग में नव लाा जीवों का घात होता है।

2. सुमेरू पर्वत तुल्य स्वर्ण दान से एक जीव की रक्ष में ज्यादा पुण्य बंध होता है।

3. फैशन युक्त रहन-सहन, सह-शिक्षा, अधिक उम्र में शादी, बलात्कार के कारण है।

4. ब्रह्मचर्य का पालन करने के लिए स्वप्न में भी सावधान रहना पडता है।

5. इस व्रत के माहात्म्य को यदि युव पीडी समझ ले तोउनके जीवन में बहुत संयम आ जाय।

6. जगत् की प्रत्येक घटना हमें संसार की असारता की शिक्षा देती है किंतु विषय वासनाओं के कोलाहल में हमें सुनाई नहीं देती।

7. अपशब्द का प्रयोग भी कुशली है।

8. हे मूढ! यदि तूने मनुष्य जन्म पाया है तो ऐसा कार्य कर जिससे ये काम नष्ट हो जाय और वह कार्य ब्रह्मचर्य का पालन ही है।

9. जिसकी रसना बस में होती है उसे ब्रह्मचर्य से कोई डिगा नहीं सकता।

10. ब्रह्मचर्य के लिए कुत्सित साहित्य फिल्मी संसार और भड़कीले तथा अमर्यादित फैशन परिधान से बचना पडता है।

11. प्रारंभ के नव धर्म मंदिर स्वरूप एवं ब्रह्मचर्य धर्म मंदिर पर कलश चढाने के तुल्य है।

12. विवाह केवल मनुष्य गति में होता है नरक, तिर्यंच, देव गति में नहीं यह भी असीम इच्छाओं को किसी एक पर केन्द्रित करने के लए होता है।

13. ’कं’ खोटा ’दर्प’ अहंकार उत्पन्न करता है इसलिए ’कंदर्प’ कहते हैं।

14. अति कामना उत्पन्न करके दुःखी करता है अतः ’काम, कहते हैं।

15. काम के कारण अनेक मनुष्य, तिर्यंच लड़-लड़ कर मर जाते हैं, इसलिए मार कहते हैं।

16. काम संवर का विरोधी है इसलिए ’संवरारि’ कहते हैं।

17. ब्रह्म जो तप उससे ’सू’ सुवति चलायमान करता है इसलिए ब्रह्मसु कहते हैं।

18. जिसके हृदय रूपी कोश में शील रूपी तलवार नहीं है उसके पास कुछ नहीं है।

19. शील की रक्षा के लिए प्राणों की आहुति देना पडे तो भी कोई हानि नहीं।

20. समुद्र में रत्नों की शोभा पानी से है, मनुष्य के गुणों के शोभा शील से है।

21. समुद्र की भावना ही विकार के अस्तित्व को सूचित करती है।

22. खान-पान और मल विसर्जन में सावधान रहना ब्रह्मचर्य की बहुत बड़ी शर्त है।

23. 25 करोड़ की अल्प संख्या वाले वैभवशाली देश्ज्ञ अमेरिका में प्रतिदिन 1440 तलाक किये जाते हैं।

24. आज पाणिग्रहण प्राण ग्रहण, प्रेम बंधन बैर बंधन के रूप में परिवर्तन हो गया है।

25. यदि मनुष्य दो साल पर्यंत लगातार सादा भोजन और अति अल्प आहार करें तो उसकी कुबुद्धि नष्ट होकर एक विशेष तेज प्रकट होता है।

26. आज कल नव दम्पत्ति में विवाह के कुछ समय पश्चात ही विवाद पैदा होने लगते हैं इस विवाद की परिणति कभी-कभी पति या पत्नि द्वारा आत्म हत्या कर लेने में होती है इसे बचाया जा सकता है यदि लड़के और लड़की शादी से पूर्व कुछ जरूरी बातों पर चर्चा कर लें तो -

1. उम्र- लड़की की उम्र प्रायः कम करके बताई जाती है, उम्र सही बतलाइये आपके गुणों को देखते हुए उम्र का थोड़ा बहुत अंतर लड़का स्वीकार कर लेगा।

2. शैक्षणिक योग्ता - अभिभावक प्रायः कहते हुये पायें जाते हैं- अजी साहब हमारा (या हमारी सुपु. या सुपुत्री) तो ग्रेजुएट है बी.ए.बी.ई. दोनों के धाकर ग्रेजुएट है पर दोनों में काफी अंतर है। अतः शिक्षा की सही-सही जानकारी दीजिए।

3. रूचियाँ व अन्य येग्यताएं- सिलाई, कढाई जैसी रूचियां प्रायः बनावटी य थोपी हुई होतीहै। इस विषय पर खुलकर बातें करे, किसी विशिष्ट पाठ्यक्रम योग्यता में आपने अच्छा स्थान बनाया हो तो स्पष्ट कर दें, आप विवाहोपरंता संबंधित गति विधियों से जुडी रहेगी या नहीं।

4. आय- अभिभावक प्रायः भावी दामाद की आय कुछ ऐसे बताते है। तुम्हरी बिटिया रानी बनकर रहेगी 6,000/- तो लड़के के हाथ में सीधे आ जाते हैं मुख्य व्यवसाय नौकरी 10 से 12 हजार की ऊपरी कमाइ अलग से कर लेता है। अतः वास्तविक आय के आधार पर ही विवाह का निर्णय कीजिए।

5. शारीरिक स्वास्थ्य चश्मादि लगता हो तो छिपाये न।

6. अपने व्यक्तित्व के चुनिंदा सकारात्मक और नकारात्मक पहलुओं से लड़के को अवगत करा दे और उससे भी पूंछ लें।

7. अपने खान-पाप (मांसाहार/शाकाहार) की जानकारी कर ले विवाहोपरान्त यह भोजन बनाना व खाना पसंद करेंगे या नहीं।

8. अभिभावक आज कल लड़की के दिमाग में भर देते हैं कि एकाकी परिवार ही सर्वोत्तम है। तुम्हारा संबंध संयुक्त परिवार में जोड़ना पड़े तो जाकर तोड़ देना यही तुम्हारे हित में होगा।

अमृत दोहावलि

घास फूस जे खात है तिन्हें सतावें काम।
षट् रस व्यंजन जे करें, तिनकी जाने राम।।1।।

नारी जने के भक्त जन, के दाता के शूर।
न हि तो बांझ रहवो भलो, व्यर्थ गमावें नूर।।2।।

पर नारी पैनी छुरी, तीन ठोर से खाय।
धन छीने यौवन हरे, मरे नरक ले जाये।।3।।

पर नारी पैनी छुरी, मत लागो कोई अंग।
रावण के दश शीश गये, पर नारी के संग।।4।।

सदा सुहागन री सखी, रोटी अर निज दार।
दाम चैगुने अरू दुःख, पूड़ी और पर नार।।5।।

।।ऊँ ह्रीं उत्तमब्रह्मचर्य धर्मांगंय नमः।।
इति उत्तम ब्रह्मचर्य धर्म