।। सम्यग्दृष्टि को मुनिदशा की भावना ।।
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देखो! यह जैनधर्म की श्रेष्ठता!!

कर्मों के अनेक पक्षों का ज्ञान कराया, इसलिए क्या जैनधर्म की श्रेष्ठता है? तो कहते हैं कि नहीं। एकेन्द्रियादि जीवों का सूक्ष्म-सूक्ष्म ज्ञान कराया, इसलिए क्या जैनधर्म की श्रेष्ठता है? तो कहते हैं कि नहीं। तो फिर किस प्रकार जैन धर्म की श्रेष्ठता है? जैनधर्म की श्रेष्ठता इस प्रकार है कि वह भावि भव का नाश करता है अर्थात् संसार का नाश करके मुक्ति देता है और इसी से जैनशासन की महिमा है। इसके अलावा अन्य प्रकार से अर्थात् पुण्यादि से ही जैनशासन की महिमा माननेवाले ने तो वास्तव में जैनशासन को जाना ही नहीं है। अभी 83वीं गाथा में इस बात को विशेष स्पष्ट करेंगे।

जैनधर्म, राग का रक्षक नहीं है किंतु उसका नाश करके वीतरागता का उत्पादक है अर्थात् भव का नाश करके मोक्ष का देनेवाला है। अनादि कालीन मिथ्यात्वादि का नाश करके, सम्यक्त्वादि अपूर्व भाव प्रगट हों, उसका नाम जैनधर्म है। भव का मंथन कर दे, नाश कर दे, वही जैनधर्म है। अभी जो अनन्द भाव की शंका में पड़ा हो, अरे! भव्य-अभव्य की शंका में भी पड़ा हो - ऐसे जीव को तो जैनधर्म की गंध भी नहीं आई है।

अहा! जैनधर्म क्या वस्तु है? - उसकी बात भी लोगों ने यथार्थरूप से नहीं सुनी है! एक क्षण भी जैनधर्म प्रगट करे तो अनन्त भव का ‘कट’ हो जाए और आत्मा में मोक्ष की छाप उतर आए अर्थात् मुक्ति की निशंकता हो जाए - ऐसा जैनधर्म है। यही जैनधर्म की श्रेष्ठता है; इसलिए हे भव्य! भव का नाश करने के लिए तू ऐसे जैनधर्म की भावना भा।

देखो, जो भव का नाश करे, वह जैनधर्म है।

- तो भव का नाश किस प्रकार होता है? क्या दया-दानादि के शुभराग से भव का नाश हो सकता है? नहीं; इसलिए शुभराग, वह जैनधर्म नहीं है।

शुद्ध ज्ञानानन्द स्वभावी आत्मस्वभाव का आश्रय करने पर ही सम्यग्दर्शनादि शुद्धभावों द्वारा भव का नाश होता है; इसलिए शुद्ध आत्मा का आश्रय ही जैनशासन है। पुण्य है, वह जैनशासन नहीं है तथा उस पुण्य द्वारा जैनधर्म की महिमा नहीं है। शुद्ध चिदानन्दस्वभाव का आश्रय कराके मिथ्यात्व और रागादि का नाश कराता है और सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र द्वारा भव का नाश कराके मोक्षपद प्रदान करता है, वह जैनधर्म की महिमा है।

जैसे, चंदन की महिमा क्या? यही कि ताप हरकर, शीतलता प्रदान करे; उसी प्रकार जैनधर्म की महिमा क्या? यही कि भाव के ताप का नाश करके, मोक्ष की परम शीतलता प्रदान करे, वह जैनधर्म की महिमा है। राग में तो आकुलता है, वह जैनधर्म नहीं है।

प्रश्न - सम्यक्त्वी धर्मात्मा को भी राग तो होता है न?

उत्तर- सम्यक्त्वी को भी जो राग है, वह कहीं जैनधर्म नहीं है; उसे राग से पार चिदानन्दतत्त्व की दृष्टि में जितनी शुद्धता प्रगट हुई है, वही जैनधर्म है। मोक्षमार्ग की पूर्णता न हुई हो, वहां साधक धर्मात्मा को शुद्धता के राग भी होता है किंतु वहां धर्म तो जितनी शुद्धता हुई वहीं है; जो राग शेष रहा, उसे धर्मात्मा, धर्म नहीं मानते और जो राग को धर्म मानता है, उसे तो धर्म का अंश भी नहीं होता।

राग रहे, पुण्यबंध हो और स्वर्गादि का भव मिले, वह जैनधर्म नहीं है तथा उससे जैनधर्म की महत्ता नहीं है किंतु जिससे चारों गति के भव का नाश होकर सिद्धपद प्रगट हो, वह जैनधर्म है और उसी से जैनधर्म की महत्ता है।

यह ‘भावप्राभृत’ है। इसमें आचार्यदेव यह बतलाते हैं कि आत्मा का कौन-सा भाव धर्म है? अथवा आत्मा के किस भाव से जैनधर्म की महिमा है? सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप वीतरागी शुद्धभाव, वह धर्म है; उसके द्वारा भव का नाश हो जाता है तथा उसी से जिनशासन की महिमा है।

धर्मी जानते हैं कि मेरा चिदानन्दस्वभाव, भवरहित है; भव के कारणरूप विकार, मेरे मूलस्वभाव में है ही नहीं; भवरहित ऐसा जो मेरा चिदानन्दस्वभाव है, उसमें एकता करके शुद्धभाव प्रगट करने पर भव का अभाव हो जाता है, वही मेरा धर्म अर्थात् जैनधर्म है और उसी से जैनधर्म की महिमा है। भूमिकानुसार राग होता है अवश्य है किंतु उससे जैनधर्म की महिमा नहीं है। जैनधर्म तो वीतरागभावरूप है और राग, वीतरागभाव का साधक नहीं, किंतु बाधक है; इसलिए वह धर्म नहीं है।

सम्यक्त्वी धर्मात्मा को साधक और बाधक दोनों भाव एकसाथ होते हैं किंतु उनमें साधकभाव ही धर्म है; बाधकभाव धर्म नहीं है और राग, बाधक भाव ही है; अतः वह धर्म नहीं है।

धर्मात्मा/सम्यक्त्वी को भी शुभराग होता है, इसलिए वह धर्म है - यदि ऐसा कहते हो, तब तो सम्यक्त्वी को कभी-कभी अशुभराग भी होता है - तो क्या वह भी धर्म है? नहीं। जिस प्रकार सम्यक्तवी को अशुभराग होने पर भी वह धर्म नहीं है, उसी प्रकार शुभराग भी धर्म नहीं है; धर्म तो वीतरागभावरूप एक ही प्रकार का है। ऐसे धर्म को पहिचानकर उसकी भावना/आराधना करना, वह मोक्ष का कारण है।

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