।। सम्यग्दृष्टि को मुनिदशा की भावना ।।
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अहो! जहां चैतन्य के आनन्द में एकदम लीन होने की तैयारी हुई, वहां शरीर के प्रति ऐसी उदासीनवृत्ति हो जाती है कि वस्त्रादि का त्याग भी सहज ही हो जाता है। चारित्रदशा प्रगट करके चिदानन्दस्वभाव में लीन होने की योग्यता हुई और उस प्रकार के कषाय दूर हो गये, वहां वस्त्र रखने की वृत्ति नहीं रहती, इतनी निर्विकारीदशा हो जाती है कि वस्त्र से शरीर ढँकने की वृत्ति नहीं रहती - ऐसी होती है जैन मुनियों की दशा!

मुनिदशा होने पर बाह्य में वस्त्रों का छूट जाना तथा शरीर की दिगम्बरदशा होना तो जड़ की अवस्था है, उस अवस्था की कर्तृत्वबुद्धि तो धर्मी को है ही नहीं; उन्हें तो ज्ञानानन्दस्वभाव की ही दृष्टि है, इसके अतिरिक्त सभी जगह से कर्तृत्व/स्वामित्व उड़ गया है। ऐसी दृष्टि के बिना कभी किसी के मुनिपना अथवा धर्मीपना नहीं होता।

शुद्ध आत्मा की ऐसी दृष्टि होने पर भी जब तक वस्त्रादि परिग्रह का रागभाव हो, तब तक मुनिदशा नहीं होती; वहां पंचम गुणस्थान का श्रावकपना हो सकता है, किंतु छट्ठे-सातवें गुणस्थानरूप मुनिपना तो कदापि नहीं हो सकता।

मुनिवरों को अंतरंग में सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप शुद्धभाव है, वह भावलिंग है और शरीर की निग्र्रन्थदशा आदि होती है, वह द्रव्यलिंग है - ऐसा भाव तथा द्रव्यरूप जिनलिंग जैनशासन में कहा है। जहां वस्त्रादि का सर्वथा त्याग नहीं है तथा अंतर में शुद्ध रत्नत्रय का भाव नहीं है, वहां जिनशासन का मुनिपना नहीं होता। जिनशासन के विपरीत मुनिदशा बतलाने वाला मिथ्यादृष्टि है।

मोक्ष का साधन जो शुद्धरत्नत्रय है, उसे धारण करने वाले मुनिवर मुख्यतः तो वन जंगल में, गिरी-गुफाओं में रहते हैं; दिन में एक ही बार विधिपूर्वक निर्दोष आहार लेते हैं; भूमिशयन करते हैं तथा द्रव्य और भाव से संयम का पालन करते हैं। अंतर में, भावसंयम का पालन करते हों और बाह्य में द्रव्यसंयम न हो अर्थात् गृहवास में रहते हों और मुनिपना हो जाए - ऐसा कभी नहीं होता।

जिनशासन में मुनि कैसे हैं? कि उन्होंने पूर्व काल में जो शुद्धभाव की भावना भायी है, उसका बारम्बार अनुभव करते हैं। पहले से ही शुद्ध आत्मा के भानसहित सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप शुद्धभाव की भावना भायी है; राग की भावना नहीं, किंतु शुद्धता की ही भावना भायी है। मैं परद्रव्य और परभावों से भी भिन्न शुद्ध ज्ञानानन्दस्वरूप आत्मा हूं - ऐसी आत्मभावना पहले से ही अर्थात् गृहस्थदशा से ही भायी है; वह पूर्व भावित भावना भाकर मुनिदशा में बारम्बार शुद्धात्मा का अनुभव करते हैं। देखो! यह मुनि की दशा!! मुनिदशा कहो या जिनलिंग कहो या मोक्षमार्ग कहो, उसकी ऐसी दशा है। जिसमें सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप शुद्धभाव है - ऐसा जैनधर्म का चिन्ह है।

आत्मा, जड़ पदार्थों और कर्मों से पृथक् ज्ञानानन्दस्वरूप है। सम्यक्त्वी जीव उसकी बारम्बार भावना भाता है और मुनि होने के पश्चात् उसका बारम्बार अनुभव करता है। प्रथम तो जिसे शुद्ध ज्ञानानन्दस्वरूप आत्मा का भान ही न हो, वह उसका बारम्बार अनुभव कैसे करेगा? और शुद्ध आत्मा के बारम्बार अनुभव के बिना मुनिदशा नहीं होती। मुनि होने से पूर्व भी उस शुद्ध आत्मा की भावना भायी है कि अहो! मैं शुद्ध ज्ञानानन्दस्वरूप आत्मा हूं, मैं ऐसे आत्मा के आनन्द में कब लीन होऊँ? आत्मा में लीन होकर कब रत्नत्रय प्रगट करूँ? अहो! धन्य है उस दशा को और उस भाव को कि जब आत्मा के आनन्द में लीन होकर मुनिदशा होगी! ऐसी भावनाएं आत्मज्ञानसहित मुनि होने से पूर्व भायी हैं। अब, मुनिदशा में उन भावनाओं को भाकर बारम्बार आनन्द के अनुभव में लीन होते हैं। अंतर में लीनता से सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप परिणति हो गयी है।

अहो! मुनिवर तो आत्मा के आनन्द में झूलते हैं। बारम्बार अंतर में निर्विकल्प अनुभव करते हैं। बाह्य दृष्टि जीवों को उस मुनिदशा की कल्पना आना भी कठिन है। मुनि की बाह्यदशा तो बिल्कुल नग्न दिगम्बर ही होती है तथा अंतर में आत्मा की शांति का सागर उछलता है.... आनन्द का सागर छलता है... उपशमरस का ज्वार आया है। यद्यपि अभी महाव्रतादि की शुभवृत्ति उत्पन्न होती है किंतु उसे ज्ञानस्वभाव से भिन्न जानते हैं।

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मुनिराज को शुभराग की भावना नहीं है, अपितु शुद्ध चैतन्य की ही भावना है... और उस भावना के बल से अंतर में लीन होकर चैतन्य के कपाट खोल दिये हैं... चैतन्य के कपाट खोलकर भीतर से ज्ञान और आनन्द को बाहर निकाला है। अंतर में ऐसे शुद्धभावसहित मुनिदशा होती है और ऐसा शुद्धभाव ही मोक्ष का कारण है। अंतर में ऐसे शुद्धभाव के बिना, मात्र महाव्रतादि का पालन करें अर्थात् द्रव्यलिंग धारण करे तो वह सिर्फ पुण्य के आस्रव का कारण है किंतु उससे धर्म नहीं है। इसलिए आचार्यदेव ने कहा है कि पूर्व काल में जो शुद्ध आत्मा जाना था और उसकी भावना भायी थी, उसी को बारम्बार भाकर तथा अनुभव करके जिन्होंने सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप शुद्धभाव प्रगट किया है, उन्हीं के मुनिदशा होती है।

प्रथम, ऐसी श्रद्धा और पहिचान करना चाहिए कि शुद्ध आत्मा के अंतरअवलोकन से होने वाले सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप शुद्धभाव ही मोक्ष का कारण है और शुभभाव, मोक्ष का कारण नहीं है। ऐसी सम्यक्श्रद्धा और पहिचान करने वाला भी सत्यमार्ग में है किंतु श्रद्धा ही विपरीत रखे, शुद्धभाव को न पहिचाने तथा राग को धर्म माने तो वह विपरीत मार्ग पर है। भव का अंत, शुद्ध सम्यग्दर्शनादि भाव द्वारा ही होता है और उसी से जैनशासन की श्रेष्ठता है।

जैनधर्म की महिमा गाते हुए आचार्य भगवान कहते हैं कि -

जिन धर्म की महिमा बतलाते हैं -

जह रयणाणं पवरं वज्जं जह तरुगणाण गोसीरं।
तह धम्माणं पवरं जिणधम्मं भाविभवमहणं ।। 82 ।।
यथा रत्नानां प्रवरं वज्रं यथा तरुगणानां गोशीरम्।
तथा धर्माणां प्रवरं जिनधर्मं भाविभवमथनम्।। 82 ।।
ज्यों श्रेष्ठ चंदन वृक्ष में हीरा रतन में श्रेष्ठ है।
त्यों धर्म में भवभाविनाशक एक ही जिनधर्म है ।। 82 ।।

अर्थात् जैसे, रत्नों में प्रवर (श्रेष्ठ) उत्तम व्रज (हीरा) है और जैसे तरुगण (बड़े वृक्ष) में उत्तम गोसीर (बावन चन्दन) है; वैसे ही धर्मों में उत्तम भाविभव मथन अर्थात् आगामी संसार का मथन करनेवाला जिनधर्म है, इससे मोक्ष होता है।

भावार्थ ‘धर्म’ ऐसा सामान्य नाम तो लोक में प्रसिद्ध है और लोक अनेक प्रकार से क्रियाकाण्डादिक को धर्म जानकर सेवन करता है, परंतु परीक्षा करने पर मोक्ष की प्राप्ति कराने वाला जिनधर्म ही है, अन्य सब संसार के कारण हैं। वे क्रियाकाण्डादिक संसार में रखते हैं, कदाचित् संसार के भोगों की प्राप्ति कराते हैं, तो भी फिर भोगों में लीन होता है, तब एकेन्द्रियादि पर्याय पाता है तथा नरक को पाता है। ऐसे अन्य धर्म नाममात्र हैं, इसलिए उत्तम जिनधर्म ही जानना।

जिस प्रकार रत्नों में श्रेष्ठ वज्ररत्न है, वृक्षों में श्रेष्ठ गोशीर-चन्दन है; उसी प्रकार धर्मों में एक जैनधर्म ही श्रेष्ठ है। कैसा है जैनधर्म? कि ‘भावि भवमथनं’ अर्थात् आगामी भव भ्रमण का मंथन कर देने वाला है अर्थात् भवभ्रमण का नाश करके मोक्ष देनेवाला है। इसलिए हे जीव! भव का नाश करने के लिए तू ऐसे जैनधर्म की भावना कर।

अहो! ‘भावि भवमथनं’ विशेषण लगाकर तो आचार्यदेव ने जैनधर्म की अचिन्त्य महिमा प्रगट की है। जिस भाव से भवभ्रमण का नाश हो, वही जैनधर्म है; जिससे भवभ्रमण का नाश न हो, वह जैनधर्म नहीं है।

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