।। सम्यग्दृष्टि को मुनिदशा की भावना ।।
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प्रवचन-3

सम्यग्दृष्टि को मुनिदशा की भावना

सम्यक्ती जीव, मुनि होने से पूर्व भी शुद्ध आत्मा की भावना भाता है कि अहो! मैं शुद्ध ज्ञानानन्दस्वरूप आत्मा हूं; अपने आत्मा के आनन्द में मैं कब लीन होऊँ? आत्मा में लीन होकर मैं कब रत्नत्रय प्रगट करूँ। अहो! धन्य है उस दशा को और उस भाव को कि जब आत्मा में लीन होकर मुनिदशा होगी।

अहो! मुनिवर, आत्मा के आनन्द में झूलते हैं.... बारम्बार अंतर में निर्विकल्प अनुभव करते हैं.... बाह्यदृष्टि जीवों को उस मुनिदशा की कल्पना आना भी कठिन है.... मुनियों के अंतर में आत्मानन्द का सागर उठल रहा है.... उपशमरस की बाढ़ आयी है।

जैनधर्म की श्रेष्ठता इस प्रकार है कि वह भावी भव का नाश करता है, संसार का अंत करके मुक्ति देता है; इसलिए जैनधर्म की महिमा है। इसके अतिरिक्त अन्य रीति से/पुण्यादि से जैनधर्म की महिमा माने तो उसने जैनशासन को जाना ही नहीं ...। अभी तो जो अनन्त भव की शंका में पड़ा हो, अरे! भव्य-अभव्य की भी शंका में पड़ा हो - ऐसे जीव को तो जैनधर्म की गंद भी नहीं आई है।

(-श्रीभावपाहुड़, गाथा 80 से 82 पर प्रवचन) ।

भाव की विशुद्धता के निमित्त आचरण कहते हैं -

बारसविहतवयरणं तेरसकिरियाउ भाव तिविहेण।
धरहि मणमत्तदुरियं णाणंकुसएण मुणिपवर ।। 80 ।।
द्वादशविधतपश्चरणं त्रयोदश क्रियाः भावय त्रिविधेन।
धरहि मनोमत्तदुरितं ज्ञानांकुशेन मुनिप्रवर! ।। 80 ।।
तेरह क्रिया तप बार विध भा विविध मनवचकाय से।
हे मुनिप्रवर! मन मत्त गज वश करो अंकुश ज्ञान से।। 80 ।।

अर्थात् हे मुनिवर! मुनियों में श्रेष्ठ! तू बारह प्रकार के तप का आचरण कर और तेरह प्रकार की क्रिया, मन-वचन-काय से भा और मनरूप मतवाले हाथी को ज्ञानरूप अंकुश से अपने वश में रख।

भावार्थ यह मनरूप हाथी बहुत मदोन्मत्त है, वह तपश्चरण क्रियादिकसहित ज्ञानरूप अंकुश से ही वश में होता है; इसलिए यह उपदेश है, अन्य प्रकार से वश में नहीं होता है। ये बारह तपों के नाम हैं - 1. अनशन, 2. अवमौदर्य, 3. वृत्तिपरिसंख्यान, 4. रसपरित्याग, 5. विविक्तशय्यासन, 6. कायक्लेश - ये तो छह प्रकार के बाह्यतप हैं और 1. प्रायश्चित, 2 विनय, 3. वैयावृत्य, 4 स्वाध्याय, 5. व्युत्सर्ग, 6. ध्यान - ये छह प्रकार के अभ्यन्तरतप हैं। इनका स्वरूप तत्त्वार्थसूत्र की टीका से जानना चाहिए।

तेरह क्रिया इस प्रकार हैं - पंच परमेष्ठ को नमस्कार - ये पांच क्रिया, छह आवश्यक क्रिया, निषिधकाक्रिया और आसिका-क्रिया। इस प्रकार भाव शुद्ध होने के कारण कहे।

अब, कहते हैं कि हे मुनि! बारह प्रकार के तप आदि भी भावशुद्धि के निमित्त ही है; इसलिए भावविशुद्धि के निमित्त से तू उन तपादि की भावना कर।

भावविशुद्धि अर्थात् सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र; वह तो शुद्ध ज्ञायकस्वभाव के ही अवलम्बन से है। उस विशुद्धता के निमित्त से तू बारह प्रकार के तप तथा तेरह प्रकार की क्रियाओं की भावना कर अर्थात् उन सब में शुद्ध ज्ञायकस्वभाव के अवलम्बन की ही मुख्यता रख और ज्ञानरूपी अंकुश द्वारा मदोन्मत मनरूपी हाथी को वश में कर। जो मन, बाह्य विषयों में भटकता है, उसे ज्ञान की एकाग्रतारूपी अंकुश द्वारा अंतरोन्मुख कर।

चैतन्यस्वभाव की सन्मुखता में शुद्धभाव होने से बारह प्रकार के तपादि सहज ही हो जाते हैं। अंतर में चैतन्यस्वभाव के अवलम्बन बिना शांति या शुद्धता नहीं होती। ‘मैं अनन्त शक्ति का धारक चैतन्यपिण्ड आत्मा हूं’ - इस प्रकार अंतर्मुख लक्ष्य करके एकाग्र होना, वह शांति का तथा भावशुद्धि का उपाय है। ऐसी भावशुद्धि के बिना तपादि को यथार्थ नहीं कहा जाता, क्योंकि आत्मस्वभाव में एकाग्रता के बिना वास्तव में विषयों का विरोध नहीं होता।

हे उत्तम मुनि! तेरा मनरूपी हाथी, मोह से मदोन्मत्त होकर बाह्य में विषय-कषायों का चारा चरने न जाए, किंतु अंतर में आनन्द का चारा चरे, उसके लिए तू ज्ञानरूपी अंकुश द्वारा उसे वश कर अर्थात् अपने ज्ञान को अंतरोन्मुख करके शुद्ध आत्मा में एकाग्र कर। तपश्चरणादिक का उपदेश भी अंतर में एकाग्रतारूप भावशुद्धि के लिए ही है।

द्रव्य-भावरूप सामान्यरूप से जिनलिंग का स्वरूप इस प्रकार है -

पंचविहचेलचायं खिदिसयणं दुविहसंजमं भिक्खू।
भावं भावियपुव्वं जिणलिंगं णिम्मलं सुद्धं।। 81 ।।
पंचविधचेलत्यागं क्षितिशयनं द्विविधसंयमं भिक्षु।
भाव भावयित्वा पूर्वं जिनलिंग निर्मल शुद्धम् ।। 81 ।।
वस्त्र विरहित क्षिति शयन भिक्षा असन संयमसहित।
जिनलिंग निर्मलभाव भावित भावना परिशुद्ध है।। 81 ।।

अर्थात् निर्मल शुद्ध जिनलिंग इस प्रकार है - जहां पांच प्रकार के वस्त्र का त्याग है, भूमि पर शयन है, दो प्रकार का संयम है, भिक्षा भोजन है, भावितपूर्ण अर्थात् पहिले शुद्ध आत्मा का स्वरूप परद्रव्य से भिन्न सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रमयी हुआ, उसे बारम्बार भावना से अनुभव किया; इस प्रकार जिसमें भाव है - ऐसा निर्मल अर्थात् बाह्यमलरहित शुद्ध अर्थात् अंतर्मलरहित जिनलिंग है।

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भावार्थ यहां लिंग द्रव्य-भाव से दो प्रकार का है। द्रव्य तो बाह्य त्याग अपेक्षा है, जिसमें पांच प्रकार के वस्त्र का त्याग है, वे पांच प्रकार ऐसे हैं - 1. अंडज अर्थात् रेशम से बना, 2. बोण्डुज अर्थात् कपास से बना, 3. रोमज् अर्थात् ऊन से बना, 4. वल्कलज अर्थात् वृक्ष की छाल से बना, 5. चर्मज् अर्थात् मृद आदिक के चर्म से बना; इस प्रकार पांच प्रकार कहे। इस प्रकार नहीं जानना कि इनके सिवाय और वस्त्र ग्राह्य हैं - ये तो उपलक्षणमात्र कहे हैं, इसलिए सब ही वस्त्रमात्र का त्याग जानना।

भूमि पर सोना, बैठना, इसमें काष्ठ तृण भी गिन लेना। इंद्रिय और मन को वश में करना, छह कार्य काय के जीवों की रक्षा करना। इस प्रकार दो का संयम है। भिक्षा भोजन करना, जिसमें कृत, कारित, अनुमोदना का दोष न लगे-छियालीस दोष टले-बत्तीस अन्तराय टले - ऐसी विधि के अनुसार आहार करे। इस प्रकार तो बाह्यलिंग है और पहिले कहा वैसे ही वह ‘भावलिंग’ है।

इस प्रकार तो बाह्यलिंग है और पहिले कहा, वैसे तो वह ‘भावलिंग’ है। इस प्रकार दो प्रकार का शुद्ध जिनलिंग कहा है, अन्य प्रकार श्वेताम्बरादिक कहते हैं, वह जिनलिंग नहीं है।

अब, जिन शासन में मुनि को द्रव्य और भाव की दशा कैसी होती है, मुनि को अंतरंग भाव की शुद्धिरूप भावलिंग तथा बाह्य में द्रव्यलिंग कैसा होता है? यह कहकर जिनलिंग का स्वरूप बतलाते हैं।

मुनियों ने, मुनिदशा होने से पूर्व परद्रव्यों से भिन्न शुद्ध आत्मा के स्वरूप को श्रद्धा-ज्ञान में लेकर बारम्बार उसकी भावना भायी थी; पूर्व काल में भायी हुई शुद्ध आत्मा की भावना से अंतरंग में सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप शुद्ध निर्मलदशा हुई है, वह तो मुनि का भावलिंग है तथा ऐसी भावशुद्धिपूर्वक् वस्त्रादिरहित दिगम्बरदशा, भूमिशयन, पंच महाव्रतादि होते हैं, वह द्रव्यलिंग है; इस प्रकार द्रव्य और भाव से निर्दोष जिनलिंग हो, वही मुनिदशा है।

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