आचार्य कुन्दकुन्द विक्रम की प्रथम शताब्दी के आचार्यरत्न माने जाते हैं। जैन परम्परा में भगवान् महावीर और गौतम गणधर के बाद कुन्दकुन्द का नाम लेना मंगलकारक माना जाता है -

मंगलं भगवान् वीरों मंगलं गौतमो गणी।
मंगलं कुन्दकुन्दाद्यो जैनधर्मोऽस्तु मंगलम्।।

यह श्लोक दिगम्बर परम्परा में शास्त्र स्वाध्याय से पूर्व बोला जाता है। चन्द्रगिरि पर्वत के शिलालेख में कहा गया है -

वन्द्यो विभुर्भुवि नकैरिह कौण्डकुन्दः
कुन्दप्रभा प्रणयि कीर्ति विभूषिताशः।
यश्चारु-चारण कराम्बुज चंचरीक-
श्चक्रे श्रुतस्य भरते प्रयतः प्रतिष्ठाम्।।

अर्थात् कुन्द पुष्प की प्रभा को धारण करने वाली जिनकी कीर्तिं के द्वारा दिशायें विभूषित हुई हैं, जो चारण ऋद्धिधारी मुनियों के सुन्दर हस्तकमलों के भ्रमर थे और जिन पवित्रात्मा ने भरत क्षेत्र में श्रुत की प्रतिष्ठा की है, वे विभु कुन्दकुन्द इस पृथ्वी पर किसके वन्द्य नहीं हैं ? श्रवण बेलगोल के विन्ध्यगिरि शिलालेख में कहा गया है -

.........कोण्डकुन्दो यतीन्द्रः।
रजोभिरस्पृष्टतमत्वमन्त-र्बाह्मेऽपि संव्यंजयितुं यतीशः।
रजः पदं भूमितलं विहाय चचार मन्ये चतुरंगुलं सः।।

अर्थात् यतीन्द्र कुन्दकुन्द रजः स्थान-भूमितल को छोड़कर चार अंगुल आकाश में गमन करते थे, उसके द्वारा मैं ऐसा समझता हूँ कि वे अंतर में तथा बाह्म में रज से (अपनी) अत्यंत अस्पृष्टता व्यक्त करते थे।

कुन्दकुन्दाचार्य विदेह गये थे; इसी पुष्टि में ‘दर्शनसार‘ का एक उल्लेख प्राप्त होता है -

जइ पउमणंदिणाहो सीमंधरसामिदिव्वणाणेण।
ण विवोहद तो समणा कहं सुमग्गं पयाणंति।।

अर्थात् सीमन्धर स्वामी से प्राप्त हुए दिव्य ज्ञान के द्वारा श्री पद्यनन्दिनाथ (आचार्य कुन्दकुन्द) ने बोध न दिया होता तो मुनिजन सच्चे मार्ग को कैसे जानते ?

श्री श्रुतसागर सूरि की षट्प्राभृत टीका के अंत में लिखा है कि पद्यनन्दि, कुन्कुन्दाचार्य, वक्रगीवाचार्य, एलाचार्य और गृद्धपिच्छाचार्य, इन पाँच नामों से युक्त तथा जिन्हें चार अंगुल आकाश में चलने की ऋद्धि प्राप्त थी और जिन्होंने पूर्व विदेह में जाकर सीमन्धर भगवान् की वंदना की थी तथा उनके पास से प्राप्त श्रुतज्ञान के द्वारा भारतवर्ष के भव्य जीवों को प्रतिबोधित किया था, उन जिनचन्द्र सूरि भट्टारक के पट्ट पर आभरण रूप कलिकालसर्वज्ञ (आचार्य कुन्दकुन्द) के द्वारा रचित इस षट्प्राभृत ग्रंथ में सूरीश्वर श्री श्रुतसागर के द्वारा रची गई ‘मोक्षप्राभृत‘ की टीका समाप्त हुई।

आचार्य कुन्दकुन्द के द्वारा रचित ग्रंथ निम्नलिखित हैं- १. नियमानुसार, २. पंचास्तिकाय, ३. प्रवचनसार, ४. समयसार, ५. बारस अणुवेक्खा, ६. दंसणपाहुड, ७. चरित पाहुड, ८. सुत्तपाहुड, ९. बोधपाहुड, १॰. भावपाहुड, ११. मोक्खपाहुड, १२. सीलपाहुड, १३. लिंगपाहुड, १४. दसभत्तिसंगहो। इनके अतिरिक्त ४३ अन्य ग्रंथों का पता लगाया गया है।

आचार्य कुन्दकुन्द ने विभिन्न दृष्टियों का समन्वय किया है। द्रव्य का आश्रय लेकर उन्होंने सत्कार्यवाद का समर्थन करते हुए कहा है कि द्रव्य दृष्टि से देखा जाय तो भाव वस्तु का कभी नाश नहीं होता और अभाव की उत्पत्ति नहीं होती। इस प्रकार द्रव्यदृष्टि से सत्कार्यवाद का समर्थन करके आचार्य कुन्दकुन्द ने बौद्ध सम्मत असत्कार्यवाद का भी समर्थन करते हुए कहा है कि गुण और पर्यायों में उत्पाद और व्यय होते हैं। अतएव यह मानना पड़ेगा कि पर्याय दृष्टि से सत् का विनाश और असत् की उत्पत्ति होती है।

औपनिषदिक दर्शन, विज्ञानवाद और शून्यवाद में वस्तु का निरूपण दो दृष्टियों से होने लगा था, एक परमार्थ दृष्टि और दूसरी व्यावहारिक दृष्टि। तत्व का एक रूप पारमार्थिक और दूसरा सांवृतिक वर्णित है। एक भूतार्थ है तो दूसरा अभूतार्थ, एक अलौकिक है तो दूसरा लौकिक, एक शुद्ध है तो दूसरा अशुद्ध, एक सूक्ष्म है तो दूसरा स्थूल। जैन आगम में व्यवहार और निश्चय दो नय या दृष्टियाँ क्रमशः स्थूल-लौकिक और सूक्ष्म तत्वग्राही मानाी जाती रही है। आचार्य कुन्दकुन्द ने आत्म निरूपण उन्हीं दो दृष्टियों का आश्रय लेकर किया है। आत्मा के पारमार्थिक शुद्ध रूप का वर्णन निश्चय नय के आश्रय से और अशुद्ध लौकिक स्थूल आत्मा का वर्णन व्यवहार नय के आश्रय से उन्होंने किया है।

आचार्य कुन्दकुन्द की दृष्टि में आत्मा को ज्ञान आदि स्वपरिणामों का ही कर्त्ता मानना चाहिए। आत्मेतर कर्म आदि यावत् कारणों की अपेक्षा कारण या निमित्त कहना चाहिए। वस्तुतः दार्शनिकों की दृष्टि से जो उपादान कारण है उसी को आचार्य ने परमार्थ दृष्टि से कर्त्ता कहा है और अन्य कारणों को बौद्धदर्शन प्रसिद्ध हेतु, निमित्त या प्रत्यय शब्दों से कहा है।

आचार्य कुन्दकुन्द का कथन है कि तत्व दर्शन न निश्चय से हो सकता है, न व्यवहार से; क्योंकि ये दोनों नय अमर्यादित एवं अवाच्य को मर्यादित और वाच्य बनाकर वर्णन करते हैं। अतएव वस्तु का परम शुद्ध स्वरूप तो पक्षातिक्रांत है। वह न व्यवहार ग्राह्म है और न निश्चय ग्राह्म। जैसे जीव को व्यवहार आश्रय से ‘बद्ध‘ कहा जाता है और निश्चय के आश्रय से ‘अबद्ध‘ कहा जाता है। स्पष्ट है कि जीव में ‘अबद्ध‘ का व्यवहार भी ‘बद्ध‘ की अपेक्षा से हुआ है अतएव आचार्य ने कह दिया कि वस्तुतः जीव न ‘बद्ध‘ है और न ‘अबद्ध‘; किन्तु पक्षातिक्रान्त है; यही समयसार है, यही परमात्मा है। ‘नागार्जुन‘ के शून्यवाद के विरोध में लोगों का तर्क था कि आप जिन वाक्यों और शब्दों से शून्यता का समर्थन कर रहे हैं वे वाक्य या शब्द शून्य हैं या नहीं ? यदि शून्य हैं तो उनसे शून्यवाद का समर्थन कैसे हो सकता है ? यदि शून्य नहीं है तो शून्यवाद का सिद्धान्त खण्डित हो जाता है। नागार्जुन इसके उत्तर में कहते हैं कि लोगों को उनकी भाषा में ही समझाना पड़ता है। शून्य जगत को शून्य भाषा में शून्यवाद का समर्थन करना होगा। म्लेच्छ को समझाने के लिऐ म्लेच्छ भाषा का ही सहारा लेना पड़ता है, दूसरा कोई उपाय नहीं है-

नान्यया भाषया म्लेच्छः शक्यो ग्राहयितुं यथा।
न लौकिक मृते लोकः शक्यो ग्राहयितुं तथा।।
(माध्यमिक कारिका, पृ. ३७॰)

कुन्दकुन्द के सामने प्रश्न आता है कि यदि परामार्थ से आत्मा में ज्ञान, दर्शन और चारित्र नहीं है तो व्यवहार से उनका कथन क्यों किया जाता है ? क्यों नहीं एक परमार्थभूत की कथन करते हैं ? कुन्दकुन्द का उत्तर है-

जहणवि सक्कमणज्जो अणज्जमासं विणा दुगाहेदुं।
तह ववहारेण विणा परमत्थु व दे सणमसक्कं।।

(समयसार-८)

जिस प्रकार अनार्य का अनार्य भाषा के बिना नहीं समझाया जा सकता उसी प्रकार व्यवहार के बिना परमार्थ का उपदेश शक्य नहीं है।

सांख्य आत्मा को कूटस्थ नित्य मानता है। बौद्ध चित्त संतान को सर्वथा क्षणिक मानता है। एक की दृष्टि में जो कर्त्ता कोई अन्य है, भोक्ता कोई अन्य है। आचार्य कुन्दकुन्द दोनों को मिथ्यादृष्टि मानते हैं- जिसका एकांत से ऐसा सिद्धांत है कि जो कर्त्ता है वही भोक्ता है, वह जीव मिथ्यादृष्टि, अनार्हत है; जो मानता है कि कर्म तो कोई अन्य ही करता है और उसका फल कोई अन्य भोगता है; वह भी मिथ्यादृष्टि, अनार्हत है। तात्पर्य यह है कि पर्यायार्थिक नय के द्वारा जिनका विभाग किया जाता है ऐसी देव-मनुष्यादि पर्यायों के द्वारा यह जीवन नाश को प्राप्त होता है; किन्तु द्रव्यार्थिक नय के द्वारा जिसका विभाग किया जाता है ऐसी कुछ अवस्थाओं के द्वारा नाश को प्राप्त नहीं होता; क्योंकि जीव का स्वरूप नित्य और अनित्य स्वभाव वाला है इसलिए द्रव्यार्थिक नय की दृष्टि से तो करने वाला और भोगने वाला जीव एक ही है; किन्तु पर्यायार्थिक नय से करने वाला और भोगने वाला दोनों भिन्न-भिन्न होते हैं। इस विषय में एकांत नहीं है।

आचार्य कुन्दकुन्द ने खडि़या का दृष्टांत देते हुए कहा है कि जैसे खडि़या निश्चय से दीवाल भिन्न है, व्यवहार से कहा जाता है कि खडि़या दीवाल को सफेद करती है; इसी प्रकार निश्चय दृष्टि से ज्ञायक आत्मा सहज है, परद्रव्य को जानता है इसलिए ज्ञायक है; ऐसा नहीं है। व्यवहार दृष्टि से ज्ञायक अपने स्वभाव के द्वारा परद्रव्य को जानता है। इस प्रकार सर्वज्ञ निश्चय दृष्टि से आत्मज्ञ और व्यवहार दृष्टि से सर्वज्ञ है। ‘समयसार‘ की जयसेनाचार्य कृत टीका में बौद्धों की ओर से कहा गया है कि बुद्ध भी व्यवहार से सर्वज्ञ होते हैं, उन्हें दूषण क्यों देते हो ? इसका परिहार करते हुए कहा गया है कि सौगत आदि के मत में जैसे निश्चय नय की अपेक्षा व्यवहार सत्य नहीं है, वैसे ही व्यवहार से भी व्यवहार इनके यहाँ मिथ्या ही है; किन्तु जैन मत में तो व्यवहार नय यद्यपि निश्चयनय की अपेक्षा मिथ्या है; किन्तु व्यवहार रूप में तो सत्य ही है। यदि लोक व्यवहार रूप में भी सत्य न हो तो फिर सारा लोक व्यवहार मिथ्या हो जाय; ऐसे होने पर कोई भी व्यवस्था नहीं बने। इसलिए जैसे ऊपर कहा गया है वह ठीक ही है कि परद्रव्य को तो आत्मा व्यवहार से जानता, देखता है; किन्तु निश्चय से अपने आप को देखता, जानता है। इस तरह आचार्य कुन्दकुन्द की दृष्टि व्यापक, आत्महितकारी एवं समीचीन है।